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२-उनका, डांचा देशकाल परिस्थिति के श्यक था वे धर्म के विकाल होनेपर आवश्यक नहीं अनुसार बना है।
रहीं । जब श्रद्धेय वस्तुए उपयोगी नहीं रहती, ३-अन्य संस्थाओं के समान उनका भी
उनसे जनकल्याण की सम्भावना नहीं रहती तब दुरुपयोग हुआ पर जैसे अन्य संस्थाएँ हम नही
उनको बदलना पड़ता है। इसके लिये या तो
धर्मों का कायाकल्प होता है या नये धर्म आजाते मिटाते उनका सुधार ही करते हैं या नई बनाते
हैं। इसलिए धर्मों के कायाकल्प या पुनर्जन्म की हैं उसी प्रकार धर्मसंस्था का भी सुधार करना बात तो कही जासकती है पर उनका विलकुल चाहिये या नई बनाना चाहिये।
अभाव नहीं किया जासकता। यह बान विज्ञा४-धर्मसंस्था की अभी आवश्यकता है।
नादि हरएक शास्त्र के विषय में लागू है। इसलिए उसको मिटाने की कोशिश का अर्थ है उसका अगर हम इन शाखो को निमूल करना आवश्यक सुधार रोक देना, और लोगा को धर्म के अधिक- नहीं समझते तो धर्मशास्त्र को भी निर्मूल करने सित रूप में फसादेना।
की बात न कहना चाहिये। -धर्म को मीमांसा या तरतमता का विचार कुछ लोग धर्मसंस्थाओं पर इसलिए आक्र. करते समय धर्मसस्था के सहज विकास तथा भण करते है कि उनमे किसी एक व्यक्ति की परिस्थितियों के विषय में उपेक्षा या भ्रम न करना गुलामी करना पड़ती है। और बुद्धि का इस चाहिये।
तरह गुलाम होजाना तो मनुष्यता की हानि कुछ लोग धर्मसंस्था का इसलिए विरोध करना
करना है। इस विषय में भी लोग बड़े भ्रम में
है। वे दिन रात के अनुभवों को भूल जाते है। करते हैं कि वह श्रद्धामूलक है, पर यह भी एक भ्रम है, इस कारण से धर्म की अवहेलना नहीं
क्या वे यह सोचते हैं कि संसार का प्रत्येक की जासकती । धर्म ही नहीं, ससार की प्रत्येक
मनुष्य अपने जमाने की सब विद्या कलाओं का व्यवस्थित प्रवृत्ति के मूल में श्रद्धा रहती है। श्रद्धा
सर्वज्ञ होगा, यदि नदी तो उसे अपने विषय को न हो तो मनुष्य प्रवृत्ति ही न करे। हा, यह बात
छोड़कर वाकी हर विषय में किसी न किसी का
॥ विश्वास करना पड़ेगा। एक वैज्ञानिक अपने विचारणीय है कि श्रद्धा का आधार क्या हो ? विषय में खुव परीक्षाप्रधानी हो सकता है। पर
और वह विवेक के साथ कितना ताल्लुक रक्खे। बीमार होनेपर उसे अपनी बुद्धि डाक्ट के हवाले धर्म मे जो श्रद्धा होती है इसके लिए यह जरूरी कर देना पड़ती है। राज्यतन्त्र में भी यही वातनहीं है कि वह विवेक के विरुद्ध हो, बल्कि बहुत होती हैं। जब राजाओं के हाथ में सत्ता थी तब. से धर्म तो इस बात पर काफी जोर देते हैं कि की बात छोड दे, हम शुद्ध प्रजातन्त्र की बात श्रद्धा को विषेक के आधार पर खड़ा होना लने है जिसमे लाखो आदमी अपनी तरफ से चाहिये। हा, श्रद्धा की आवश्यकता सभी मह- एक प्रतिनिधि बनाकर विधानसभाओं में भेजदेते सुम करते है सो यह बात केवल धर्म में ही हैं। इसका मतलब यह हुआ कि लाखों बादहै, हरएक कार्य मे है। एक वैज्ञानिक भी अपने मियो ने अपनी बुद्धि एक आदमी के यहा गिरवी निश्चित सिद्धान्ता पर श्रद्धा रखता है, यही बात रखदी। इस तरह ससार में सारी व्यवस्था में अन्य शास्त्रा के बारे में भी कही आसानी है,
विश्वास से काम लेना पड़ता है इसे अगर बुद्धि
की गुलामी कहानाय तो सारा संसार, गुलाम है इसलिए इसे धर्मशास्त्र का दोष नहीं कह सकते। और इस गुलामी के विना संसार का काम नहीं
हा ! यह बान अवश्य है कि पुराने जमानं चल सकता, तब अकेने धर्मशास्त्र को कोसने में में धर्म के नि जिन बानो पर श्रद्धा करना आव. क्या होगा।