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धर्मसंस्था तो राज्यसंस्था की अपेक्षा काफी तब नये तीर्थकर और नये धर्माचार्य सामने । उदार होती है। गज्य का कानून चाहे आपको आजाते हैं। । समझ में आवे या न आवे आपको उसका पालन बात यह है कि सत्य की शोध प्रजातन्त्र के
करना ही पड़ेगा और नहीं करेंगे तो दण्ड भोगना आधार से नहीं होती, वह तो किसी एस क्रान्ति| पड़ेगा ! अगर इतनी कड़ाई न हो तो राज्यसंस्था कार के जरिये होती है जो जनमत की पर्वाह बिलकुल निरुपयोगी होडाय पर धर्मसंस्था ऐसी नहीं करता, जनहित की पदहि करता है । जनमत किसी कडाई का उपयोग नहीं करती। वह सम. तो शुरु शुरु मे उसके विरोध में ही खडा होता झाती है, संस्कार डालती है, और पालन करने है। अच्छे अच्छ वैज्ञानिकों के विषय में और से पहिले परीक्षा करने की छुट्टी देती है। इसमें तीर्थकरो के विषय में यहीं हुआ। और अपनी घुद्धि की गुलामी कहा है ? रही एक व्यक्ति की सूक्ष्म दृष्टि, सत्यसाधना और कठोर तपस्या क श्रद्धा की बात, सो उसमें भी कोई जबर्दस्ती नहीं पलपर उनने जनमत पर विजय पाई और उसे की जाती । बह तो बारबार की सफलता देखकर बदल दिया । ऐसी अवस्था में यदि काफी समय अपने आप होती है।
तक लोग ऐसे तीकरों और वैज्ञानिकों के मत जब हम किसी व्यक्ति को एक विषय पर काफी श्रद्धा रखें, तो इसमें प्राश्चर्य की क्या निष्णात देखते हैं और उसके द्वारा अनेक " दिशाओं में सफल पथप्रदर्शन देखते हैं तब उस धर्मसंस्था जीवन की चिकित्सा करने वाली विषय में श्रद्धा हो ही जाती है। नास्तिकता को एक संस्था है या यों कहना चाहिये कि जीवन पद पदपर दुहाई देनेवाले और धर्म का विरोध का शिक्षण देने वाली एक पाठशाला है , इन करनेवाले साम्यवादी, साम्यवाद को live स्थानों पर हास्टर वैद्य, था पाठक का मूल्य ही पदपर कालमार्स की दुहाई देते है, सोसाधा.
अधिक होता है, रोगियों या विद्यार्थियों का नहीं ।
रोगियों को यह अधिकार है कि वे याद रण भी विज्ञान के मामलों में अमुक वैज्ञानिक किसी डाक्टर को अच्छा नहीं समझते तो उसस था वैज्ञानिको की दुहाई देत हैं। इसी तरह हर चिकित्सा न कराये पर द चिकित्सा कराना है एक क्षेत्र में असाधारण कार्य करनेवाले लोगों को अन्तिम मत डाक्टर का ही होगा। की दुहाई दी जाती हैं। यह बुरा नहीं, क्योंकि डाक्टर के सामने वे अपना मत रख सकते है, हरएक आदमी हर विषय की तह तक तो पहुँच डॉक्टर उनपर विचार करेगा और अपना अन्तिम नहीं सकता इसलिए वह अपने को हर विषय का निर्णय देगा। धर्मसस्था के विषय में भी ठीक निष्णात भी नहीं मानता, इसलिए निष्णातो का यही बात है, तीर्थकर या धर्माचार्य जीवन की या अपने से अधिक निष्णानी का मन उसके चिकित्सा का डाक्टर है। आप उसे चुनने न लिए मूल्यवान होजाता है यह बात जैसे हरएक धुनने में, मानने न मानने में स्वतन्त्र हैं। लेकिन शाब और हरएक संस्था के विषय में है उसी चिकित्सा में अन्तिम मत उसीका है। जीवन के रह धर्मशास्त्र और धर्मसंस्था के विषय में भी हरेक क्षेत्र में अमुक व्यक्ति या व्यक्तियों को है। अब किसी वैज्ञानिक सिद्धान्त या विचार प्रधान मानकर चलना पड़ता है उसी प्रकार धर्मयुग के अनुरूप नहीं रहत तो उसके नाम की
- सस्था में भी चलना पड़े तो उसमें हुब्ध होने की हामी बन्द होजाती है, उसी तरह किसी धर्म सबकि किसी कानून के जरिये आप पर धमः
कोई बात नहीं है। खासकर उस अवसर पर र्थिकर या धर्माचार्य के विचार युग के अनुरूप संस्था जबरदस्ती लादीन गई हो, आप उसे ही रहते नव उसकी दुहाई बन्द होजाती है। स्वीकार अस्वीकार करने मे स्यनत्र हों।