________________
an
-
-
-
m
m
-
Mar
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
उपमा रूपक आदि की कोई सीमा नहीं है, और उपयोग करना चाहिये । उनका वस्तुस्थिति से इतना सम्बन्ध नहीं होता, २ सयुक्तिक शढ-समन्वय (डम्मिर ईक जितना हमारी इच्छा या कल्पनाओं सं । इस शतो) भी उपयोग में लाया जासकता है। पर लिये से अथों का तब तक कोई उपयोग न उसकी सयुक्तिकता काफी स्पष्ट हो। करना चाहिये जर तक सीधा अर्थ लगाने मे
३-अयुक्तिक शब्द-समन्वय (नोडम्मिर कोई प्रामाणिक बाधा न हो।
इक शत्तो) का उपयोग न करना चाहिये । इनका एकाक्षरी कोय का उपयोग करके अर्थ बद- उपयोग काव्य चमत्कार दिखाने में है वस्तुस्थिति लना भी इसी तरह व्यर्थ है। अगर कहा जाय के निर्णय में नहीं। एकाधवार कदाचित् इससे कि पुराने जमाने में लोगों को प्राकृतिक शक्तियों सत्प्रेरणा दी जासके पर तरीका गलत होने से के बारे में बहुत अज्ञान था" इसका सीधा अर्थ लाभ से अधिक हानि है। समझदारो के सामने यही है कि उन्हें जानकारी नहीं थी। पर अज्ञान विश्वासयोग्यता न होने से एक बात के कारण का ईश्वरीय ज्ञान अर्थ करना, और कहना कि दस बातें अविश्वसनीय होजाती हैं। इसलिये उन्हें प्राकृतिक शक्तियों का ईश्वरीय ज्ञान था, वस्तुस्थिति के निरूपण में इसका उपयोग कभी तो यह अन्धेर है। निःसन्देह एकाक्षरी कोपमें न करना चाहिये। 'अ' का अर्थ 'विष्णुः किया गया है (अकाये -प्रत्ययुक्तिक शब्द-समन्वय (मे-नोडवासुदेवःस्यात् ) इसलिये अ-ज्ञान अर्थात् 'अ'मिर ईक शत्तो) वो और भी बुरा है। विद्वानों का विष्णु' का ज्ञान कहा जासकता है । पर के सामने ही नहीं, किन्तु साधारण जनता के काव्य शास्त्र के चमत्कार के लिये जो बाते काम सामने भी इसकी अविश्वसनीयता प्रगद होजाती। मे लाने की है उन्हें इतिहास की कसौटीन है। बनाना चाहिये।
समन्वय दृष्टि आजाने से हरएक बात का _ समन्वय के इन भेदो को ध्यान में रखकर सदुपयोग होने लगता है। हमें समन्वय कार्य में निम्नलिखित भयोदात्रा का इसप्रकार निष्पक्षता परीक्षकता समन्वयपालन करना चाहिये।
शीलता से सत्येश्वर के दर्शन के मार्ग की बाधाएँ 1-पारिस्थितिक समन्वय (ललिजशत्तो) हटजाती हैं और सत्येश्वर का गुणदर्शन होजाता ही सर्वश्रेष्ठ है। समन्वय में मुख्यता से इसी का है। उससे सत्येश्वर की साधना होसकती है।