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धाष्टिकांड
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जहां जीवन की जिम्मेदारियों को पूरा किया सेवाएँ इकरंगी होती है अत्र कि गृहस्थ की जाता हो और समाज के प्रति अपने दायित्व पर सवाएँ नाना तरह की होती हैं इसलिये कर्मयोग उपेक्षा नहीं की जाती हो वहां कर्मयोग ही है। का व्यापक और उच्च म्प गृहस्थ में दिखाई फिर वह व्यक्ति चाहे गृहस्थ हो या सन्यासी। देता है, संन्यास में नहीं। जो गृह-कुटुम्ब का त्याग विश्व-सेवा के लिये करते
___आदर्श कर्मयोगी गृहस्थ होगा संन्यासी है वे गृहस्थ कहलाये या न कहलायें वे कर्मयोगी
नहीं । इन सब कारणों से कर्मयोगियों की नामहैं । गृह-कुटुम्ब के त्याग से तो उनने सिर्फ इतना
माला में गृहस्थ योगी ही मुख्य-रूप मे बताये ही सायिन किया है कि उनके कौटुम्बिक स्वार्थ
जाते है। खैर, प्रसिद्धि, व्यापकता, आदि की अब संकुचित नहीं है। उनकी कुटुम्ब सेवा की
दृष्टि से किसी का भी नाम लिया जाय परन्तु शक्ति भी अब विश्वसेवा मे लगेगी। इस प्रकार
इसका मतलब यह नहीं कि सन्यासी, कर्मयोगी कर्म करने के रंग ढंग बदल लेने से किसी की
नहीं होते हैं। कभी कमी असाधारण जनसेवा कर्मयोगिता घट नही जाती।
के लिये संन्यास लेना अनिवार्य हो जाना है उस प्रश्न-कर्मयोगियो की नामावलि में महात्मा समय संन्यासी-कर्मयोगी बनना ही उचित है। कृष्ण राजर्षि जनक आदि गृहस्थों के नाम ही जैसे म महावीर, म. बुद्ध, म. ईसा आदि बने क्या पाते हैं?
___उत्तर- इसलिये कि कर्मयोग की कठिन प्रश्न-गृहस्थ से साधु उन्य है और साधु परीक्षा यही होनी है और उसका व्यापक रूप से योगी उच्च । गृहस्थ जब साधु ही नहीं है नब भी यहीं दिखाई देता है। कर्मयोगी बनने में वह योगी क्या होगा ? अनि होगा तो गृहस्थ सन्यासी को जिननी सुविधा है उतनी गृहस्थ को और साधु मे अन्तर क्या रहेगा ? नहीं । संन्यासी का स्थान साधारण समाज की
उत्तर- साधु की उच्चता और योगी की दृष्टि में स्वभाव से ऊँचा रहता है इसलिये मान
उच्चता अलग अलग तरह की है । साधु इसलिय अपमान और लामालाभ ने उसका गौरव नष्ट उच्च है कि वह कम से कम लेकर समाज के नहीं होना। कुछ शारीरिक असुविधाएँ हो उसे लिये अधिक से अधिक या सर्वस्त्र तक देता है उठाना पड़ती है पर समाज की दृष्टि में ये भी जब कि गृहस्थ लेन देन का हिसाव रखता है, इसउसके लिये भूपण होती है। लेकिन गृहस्थ को लिये गृहस्थ से साधु उच्च है। पर ऐमा भी साधु यह सुविधा नहीं होनी। गृहस्थ-योगी को योगी होसकता है जो योगी न हो। योगी जीवन्मुक्त की सारी जिम्मेदारियों तो उठाना ही पड़ती है
होता है, उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया होता है, साथ ही समाज के द्वारा इस योगी को मिलने
उसका जीवन पवित्र अर्थात् निर्दोष होता है. फिर वाली जितनी वित्तियों है वे मत्र भी सहना भो होसकता है कि साधु न हो कम लेकर अधिक पडती है इसलिये संन्यासी की अपेक्षा गृहस्थ को देने को नौनि के अनुसार उसका जीवन न बना योगी बनने में अधिक कठिनाई है। फिर संन्यासी होनी हालत में यह योगी कहा जासस्ता है समाज के लिये कुछ न कुछ बोभाल होता है इस• साधु नहीं ! बहुत से ध्यानयोगी योगी होनेपर लिये भी सत्र के अनुकरणीय नहीं है। अगर भी साधु नहीं होते। इमवार मावु और योगी गृहस्थ-रूप में सारा जगत कर्मयोगी होजाब तो दोनो महान होनेपर भी और एक ष्टि में योगी जगत स्वर्ग की कल्पना से भी अच्छा बन जाय साधु से महान होनेपर भीसा होसकता है कि परन्तु अगर सत्र सन्यासी हो जाय तो जगत एक आदमी योगी हो पर साधु न हो. या माध नीन दिन भी न चले इसलिये संन्यासी समाज हो पर योगी न हो। इस दिस चार श्रेणियों के लिने अनुकरणीय भी नहीं हैं। संन्यामी की बनती है।