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सत्यामृत
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वृत्तिका सूचक है। इससे भी परामनोवृत्ति का क्षतिपूर्ति (मानसिक आर्थिक आदि) न करें तो अक्षोम मालूम होता है।
समाज में बड़ी अव्यवस्था पैदा होगी । सताये
हुए लोग न्याय न मिलने के कारण कानून को उसको दुर्जनता कैसे भूल सकते हैं ? अगर भूल
अपने हाथ मे ले लेंगे। एक खूनी को आप प्राण जायें तो हमारी और दूसरों की परेशानी बढ़
दंड न देकर सुधार करने के लिये छोड़ दें तो खून जायगा। इसलिये कम से कम उसकी दुर्जनता
करने की भीषणता लोगों के दिल से निकल का स्मरण करके हमें उससे बचते रहने की
जायगी इसलिये अपराध बढ़ जायेंगे। दूसरे वे कोशिश तो करते ही रहना चाहिये और अगर लोग कानून को हाथ में लेकर खूनी का या उसके समाज व्यवस्था के लिये दह देना अनिवार्य हो सम्बन्धी का खून करेंगे जिनके आदमी का पहिले तो दंड भी देना चाहिये, विस्मृत-वत व्यवहार खून किया गया है । कानून से निराश होकर करने से कसे चलेगा।
जब मनुष्य खुद बदला लेने लगता है तब वह
बदले की मात्रा भूल जाता है! जितनी ताकत उत्तर-विस्मृत-वत् व्यवहार के लिये होती है उतना लेता है। इस प्रकार समाज में घटना का होजाना ही श्रावश्यक नहीं है किन्तु अंधाधन्धी मच जायगी। परन्तु अगर खूनी को उसका फलाफल-कार्य होजाना भी आवश्यक है। एक चोर ने चोरी की है तो जब तक उसका
प्राण दड दे दिया जाय तो उसका सुधार कव दड वह न भोगले तब तक हम उसकी बात नहीं .
और कैसे होगा, उस पर हमारी दया कैसे होगी। भूल सकते । दंड देने का कार्य हम करेंगे। फिर इस प्रकार पापी और पाप के मेद को जीवन में भी उस पर व्या रक्खेंगे, उसको सहज वैरीन उतारना योगी को भी असंभव है। बनायेंगे, तथा जत्र और जहाँ चोरी की बात नहीं उत्तर-पापी और पाप के भेन का मतलब है वहाँ उससे प्रेमल व्यवहार रक्खेंगे। मतलब यह है कि पापी से व्यक्तिगत दुवेप न रखना यह है कि सुव्यवस्था रखने के लिये जितना दंड और उससे बदला लेने की अपेक्षा निष्पाप बनाने अनिवार्य है मतना तो देंगे, लेकिन उस प्रकरण का प्रयत्न करना । मूल में तो सभी एक से है। के बाहर उस घटना को भूले हुए के समान व्यव. परिस्थितियों ने या भीतरी मलने अगर किसी हार करेंगे।
व्यक्ति का पतन कर दिया है तो हमें उसके पतन ३-पापी-पाद-भेद-जिसकी परावृत्ति अक्षु
पर दयापूर्ण दुख होना चाहिये न कि वेप । ब्ध है वह पाप से घृणा करता है पापी से नहीं ।
पर अधिक सुख की नीति के अनुसार जब व्यक्ति पापी पर वह दया करता है उसे एक तरह का
और समाज का प्रश्न आता है तब समाज रोगी समझता है। पाप को रोग समझ कर उसे
का अधिकार-रक्षण पहली बात है व्यक्ति को पाप से छुडाने की चेष्टा करता है। उसका ध्येय
इलाज अगर समाज का नाइलाज बन रहा हो
तो हमें व्यक्ति के इलाज पर उपेक्षा करना पड़ेगी। दंड नहीं होता सुधार होता है और दंड भी सुधार का अंग बन जाता है।
इसीलिये खूनी आदि को प्राणदंड की जरूरत
है क्योकि इससे उस व्यक्ति का इलाज भले प्रश्न-ऐसे पाप. या बुराई के लिये, हो न हो पर समाज का इलाज होता है। जैसे जिसका असर इसरो पर नहीं पडता अर्थात कभी कभी हमे रोगी को भी प्राणदंड देना पड़ता दूसरो के नैतिक अधिकार को बाधा नहीं पहुँ- है वैसे कभी कमी पापी को भी प्राण ड देना चती अगर 'अपगधी को ठंड ने दिया जाय, सिर्फ पड़ता है। पागल कुत्ता काटता है और उसके सुधार की दृष्टि से उसकी चिकित्साही की जाय काटने से यादमी मर जाता है, इसमें उस कुत्ते जो ठीक है परनुस र दया करने के लिये दृमरोंकी का क्या अपगव है। फिर भी समाज-रक्षण के