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म बुद्ध यदि प्रेम-हीन होते तो जगत् को सुचार अतिरेक बाधक है । भक्ति नहीं भक्ति की दृढ़ता ने का प्रयत्न ही क्यों करते वास्तव में ये भी नही. सिर्फ भक्ति का अतिरेक घाधक है, या महान प्रेमी या विश्व प्रेमी थे इसीलिये परम अवसरजता का अभाव बाधक है। अगर यह वीतराग थे। बीतगगता प्रेम के विरुद्ध नहीं है। अतिरेक या अविवेक न हो तो भक्ति यागा वह मोह, लोभ, लालच, तृष्णा आदि के विरुद्ध अहत आदि बनने में वाधक नहीं है, इतना ही है। भक्ति में भी स्वार्थ-भक्ति और अन्य भमि नहीं किन्तु श्रावश्यक है। अगर योगी में उपकावीतरागता क विरुद्ध है ज्ञान-भक्ति नहीं भक्ति- रक गुरुजन आदि के विषय में भक्ति विनय योगी तो ज्ञान भा होता है।
आदि न हो तो योगी कृतघ्न होजाय, ऋतरन भ-कहा आता है कि म महावीर मनुष्य एक तरह का चोर चाकू के समान मुख्य शिष्य इन्भूति गौतम म महाबीर के अM है यह योगी श्रहंत आदि क्या होगा ? इन्मभूति विक मत ये इसलिये पारम्भ में इस महि अब अहंत होगये तब भी वे म महावीर के भक्त उनका उत्थान तो हुआ परन्तु आगे इस भनि रहे, सिर्फ अतिरेक दूर हुआ विवेक बढा भक्ति उनका विकास रोक दिया। जब तक वे भक्त वते शुद्ध होगई। रहे तब तक उनने केवलज्ञान न पाया अर्थात् योगी मनलब यह है कि भक्ति हो, गुणानुराग न हुए। इससे मालूम होता है कि भक्ति भी एक हो, कृतज्ञना हो या प्रेम का काई दूसग रूप हो तरह का राग है जो वीतरागता में बाधक है। जो दसों के परिकार में बाधा नहीं सालता,
उत्तर-पौतम कर्म-योगी थे फिर भी जीवन और उचिन कर्तव्य का विरोधी बनाता है वह सर म महाहीर के भक्त रहे। केवलज्ञान हो जाने प्रात्मशुद्धि चा योग का नाशक नती है । अपन पर भी वह भक्ति नष्ट न हो गई, सिर्फ म महा- सम्पर्क में आये हुए लोगा से उचित मात्रा में वार के विषय में जो उनका मोह या आसक्ति कुछ विशेष प्रेम योगी को भी होता है। गुणानुया वह नष्ट हो गई । इस आसक्ति के कारण राम दीनवात्सल्य कृतज्ञता आदि गुण योगी के गौतम में आत्मनिर्भरता का अभाव था, म महा. लिये भी आवश्यक है। वीर के वियोग में वे दुखी और निर्वल हो जाते ये केवलज्ञान हो जाने पर यह बात न रही। म.
____ -योग के भेदो में हठयोग आदि का महावीर ने जो जगत का उपकार किया था,
योनही किया | इन्हे ध्यानयोग कहाउनका उपकार किया था, उसे इन्द्रभूति न भूले.
बाय या कर्मयोग ? ध्यानयोग कहा जाय तो जीवन भर उनका गुणगान करते रहे उनके विपथ ।
भक्ति सन्यास या सारस्वत में इन्द्रभूति का आचरण विनय-युक्त रहा इस
उत्तर---इस योगदृष्टि मे हठयोग आदि को प्रकार वे योगी होकर भी उनके भक्त बने रहे। कोई स्थान नहीं है । हठयोग तो एक तरह की । भक्ति में जब विवेक की काफी कमी होलानी कसरतें हैं जो अपनी शारीरिक अवस्थाश्रो पर ११ वह हानिकर होजाती है.
विशप प्रभाव डालना है। एसा योगा एक तरह में बाधक होजाती है । कृतज्ञता विनय विश्वास
का वैद्य है । जीवन शुद्धि संयम आदि से उसका चार वाचत हैं और आवश्यक भी है। परन्त सीवा सम्बन्ध नहीं है पर योगदष्टिमें जो योग है कमी कमी भक्ति का ऐसा अतिरेक होला वह तो संयम का एक विशाल उत्कर्ष है जिसे कि वह स्वपर कल्याए में बाधक होजाती है। पाकर मनुष्य अईत बुद्ध वीतराग या समयावी जिसकी भक्ति की जाती है उसके मार्ग में भी बनता है । हठयोग से सा उत्कर्ष नहीं बाधक बतजाती है। किस अवसर पर भक्ति होसकता। किस तरह प्रगट करना चाहिये इसका भी ध्यान प्रभ-यानयोगी जैसे नाना अवलम्बन नहीं रहता। योगी या अर्हत होने के लिये यह लेते हैं, जिनके तीनभेन किये गये हैं, भक्ति