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जानते हैं कि “काम बिगड़ने में इसका कोई अपराध नही है, दूसरा अज्ञात या जबर्दस्त कारण आजाने से यह काम बिगड़ा है, ऐसा कारण सदा नहीं आया, इसलिये शुद्ध हृदय व्यक्ति पर विश्वास रक्खा जा सकता है । वह जानबूझकर श्रहित नहीं करेगा ।" इस विचारधारा से हमे शुद्ध हृदय व्यक्ति के बारे में निश्चिन्तता बनी रहती है, विश्वास बना रहता है। और यह काफी सुख-सन्तोष की बात है । किन्तु जिसके मनमे द्वेष है. किन्तु किसी कारण या अवसर आदि न मिलने से वह प्रगट या सफल नहीं हो पाया है उसके विषय में चिन्ता बनी रहती है। न जाने कत्र मौका मिलजाय और वह हमें सत्ता डाले । इस प्रकार सदा की 'बेचैनी से काफी दुःख होता है । सहयोग की आशा न रहने से भी सुख हानि होती है । इसलिये लोग आत्मशुद्धि को देखते हैं। किन्तु उसका ध्यं सुखवर्धन ही होता है।
प्रश्न -- जब कोई मनुष्य हमे गाली देता है उसकी गालियों से हमें कोई चोट नहीं लगती. अच्छे शवों की तरह बुरे भी हवा में उड़जाते हैं फिर भी तो हमें दुख होता है वह इसी बात का कि इसका मन शुद्ध है। मतलव यह कि दुखवर्धन न होनेपर भी मन की शुद्धिसे हम किसी बात को अकर्तव्य मानलेते हैं। इससे तो यही मालूम होता है कि आन्मा की शुद्धि ही असली पेय है ।
उत्तर -- श्रात्मा या मन की अशुद्धि तो तब भी कही जासकती हैं जब कोई हमें गाली न देकर हमारे दुश्मन को गाली है, पर उस समय हसे दुःख नहीं होता या बहुत कम होता है । इसका मतलब यह हुआ कि गाली को हमने इसलिये बुरा नही माना कि इससे उसका आत्मा अशुद्ध हुआ, किंतु इसलिये बुरा माना कि उससे हमारा अपमान हुआ । और जितना अपमान हुआ उतना दुःख हुया ! एक आदमी हमारे परोक्ष मे हमे गाली दे तो इसपर हम उपेक्षा कर जायेंगे। क्योंकि परोक्ष मे गाली देने से हमपर कोई यह न लगागा कि तुम गाली
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खागये इसलिये कमजोर हो । पर जनता के बीच हमारे सामने कोई इसे गाली दे तो हम न सहेंगे क्योंकि उसमें हमारा काफी अपमान होता है । अपमान एक बड़ाभारी मानसिक दुःख है जो गाली से मिलता है इसलिये हम इसके विरोधी होते हैं । यहा हमारी दृष्टि सुखवर्धन करने और दु.ख घटाने की रहती है। आत्मशुद्धि इस कार्य मैं जितनी सहायता पहुँचाती है, उतने अंश में उसे भी उपध्येय के रूपसे स्वीकार किया जाता है
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प्रश्न - जैसे यह कहा जासकता है कि सुखवर्धन के साथ श्रात्मशुद्धि होती है उसी प्रकार यह भी कहा जासकता है कि आत्मशुद्धि के साथ सुखवर्धन होता है। सुखवर्धन को ध्येय मानने
आपत्ति नहीं है पर आत्मशुद्धि को ध्येय मानने में भी क्या आपत्ति है ?
उत्तर - चार आपत्तियाँ हैं १ - अनिश्चितार्थता २- अनिष्टार्थता ३ - विपक्षाश्रयता, ४ - अशात निज्ञासा ।
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१- निश्चितार्थता (नोनिसागो ) आत्मशुद्धि शब्द का अर्थ ही निश्चित नहीं है। आत्मा
से बनी कोई श्रनित्य बस्तु है, वह परमाणु बुराहै ? वह नित्य द्रव्य है या द्रव्यों के मिश्रण वर है या शरीर परिमाण है या विश्वव्यापक है ? उसके साथ अशुद्धि क्या है ? वह कोई भौतिक पिंड है, या उसका गुण है ? या माया है ? भौतिक अभौतिक का वन्ध कैसे और कब होसका है ? उसकी शुध्दि का क्या मतलब है ? वह होती कैसे है ? इन प्रश्नों के साथ मोक्ष-श्रमोक्ष ब्रह्म माया आदि के ऐसे प्रश्न खड़े होजाते हैं कि आत्मशुदि का ठीक रूप ही स्पष्टता से ध्यान में नहीं आता फिर उसको ध्येय कैसे मानानाथ ।
२ -- अनिष्टार्थता ( नोइश्शागो ) चात्म शुद्धि का साधारणत यह मतलब समझा ज हैं कि चित्त स्थिर हो, निर्विकल्प हो, राग द्वेष आदि किसी तरह की भावना उसमें पैदा न हो, श्रात्मा समाधिमें लीन हो, या आत्मा से तीन हो, मन वचन शरीर की क्रियाएँ बन्
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