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दृष्टिकांड
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किसी के यहां शादी आदि का महोत्सव हो, सुख विचार (शिस्मो ईको) काम करनेवाले काफी हों, कोई विशेप शारीरिक जो संवेदन अपने को अच्छा लगे वह सुख कष्ट न हो फिर भी कैसे क्या कराया जाय, है अर्थात् अनुकूल या इष्ट संवेदन का नाम सुख क्या होगा' आदि चिन्ताओं के बोझ से वह परे- है। सुख और दुख किसी क्रिया का नाम नही शानी का अनुभव करने लगता है । यह चिन्ताओं है। जो क्रिया आज सुख देती है वही कल दु:ख का वोम शारीरिक कष्ट नहीं है इससे शारीरिक
देसकती है। गरमी की रात्रिमे वस्त्रहीनता सुखद
र दु.खमं शामिल नहीं कर सकते, शादी का प्रसंग
होसकती है और ठंड की रात्रि में दुःखद । कमी और आदमी अनिष्ट भी नहीं हैं कि उन्हे अनिष्ट
हाथ दबाना सुखद होसकता है और कभी योग कहा जाय, न इश्वस्तु के छिननका कष्ट है कि दुःखद । इसलिये सुखदुःख-संवेदनपर ही इष्टवियोग कहाजाय और न अपमान या दीनता
निर्भर है किसी क्रियापर नहीं। का दुख है जिससे लाधव कहाजाय, इसलिये
सुख आठ तरह के हैं-१-ज्ञानानन्द, व्यग्रता एक अलग ही दुःख है। यह एक तरह
२-प्रेमानन्द, ३-जीवनानन्द, ४-विनोदानन्द, की मानसिक निर्बलता का परिणाम है । मान
५-स्वतन्त्रतानन्द, ६-विषयानन्द, ७-महत्त्वानन्द, सिक शक्ति जितनी कम होगी व्यग्रता उतनी अधिक समझी जायगी । व्यग्रता से क्रोध मुझला
-रौद्रानन्द । हट चिन्ता श्रादि भाव पैदा होते हैं। अभ्यास न १-ज्ञानानन्द--( जानोशिम्मो ) जीव ' होने से या मन निर्बल होने से व्यग्रता का कष्ट ज्ञानमय ह, आर यह ज्ञान जावनका प्रमुख
आनन्द है। जहा कोई स्वार्थ नहीं होता वहां
सिर्फ जानकारी से प्राणी इतना आनन्दित होता ६-सहवेदन ( सेतु दो ) प्रेम-भक्ति मैत्री है जिसका कुछ ठिकाना नहीं है । आकाश के वात्सल्य करुणा के वश होकर दूसरे के दु.ख मे ताये का या ब्रह्माड की रचना का रहस्य जव। दुःखी होना सहवेतन दुःख है । कभी कभी सहवे. मनुष्य को मालूम होता है तब उससे किसी लाम दन दु.ख अपने किसी स्वार्थ के कारण अन्य की आकांक्षा न होनेपर भी मनुष्य एक उच्च दुखों में भी परिणत होजाता है। जैसे अपने श्रेणी के आनन्द का अनुभव करता है । इना नौकर को चोट लगगई और इससे अपने को ही नहीं, रास्ता चलते जब कोई नई सी घटना दुःख हुआ। यह दु.ख सहवेदन भी होसकता है, होते वह देखता है तब वह उसे जानने के कुतूहल
और नौकर दोचार दिन काम न कर सकेगा को शमन नही कर पाता । जानकारी के लिये वह इस भाव से अभिष्ट योग भी होसकता है । जहाँ काफी धन और समय खर्च कर देता है । ऐसा लितने अश में शुद्ध प्रेम के वश में होकर मालम होता है कि जानकारी प्राणी की सब से दूसरो के दुःख में हम दुखी होते है वहा उतने अच्छी और आवश्यक खुराक है। यही कारण अंश मे सहवेदन दुख होता है। लोकसेवी है कि जीवनमें अनेक कष्ट होनेपर भी मनुष्य महात्माओं को, सब दंग्य छूटजानेपर भी, यह जानकारी के आनन्द के लिये जीवित रहना चाहता दुख बना रहता है । यह दुन्य जगत के दुःख दूर है। इसलिये कहना चाहिये कि यह सब से मा. करने में सहायक होने से आवश्यक दन्य है। त्वपूर्ण आनन्द ।। यह दुःख रौद्रानन्द का विरोधी और में मानन्द
र-प्रेमानन्द ( लवोशिम्मो ) प्रेम का का सहयोगी है।
.. आनन्द भी एक स्वाभाविक आनन्द है। हृदयमे इस प्रकार छः प्रकार के शारीरिक और छ, हुनय मिलने को व्याकुल होता है। दो प्रेमी तय प्रकार के मानसिक कुन बारह तरहके दुःख हुए। आपसमें मिलते हैं तब वे आपसमें कुछ दे यान दें