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सत्यामृत
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मुख है। सैद्रानन्द को छोडकर और सुखों को है फिर भी इसमें कुछ कमी भी है। इसमें कुछ मी इस तरह का बनाया जासकता है। यह सब तो अनिवार्य है और कुछ मनुष्य के द्वारा दूर से अच्छा सरन है इसलिये इसे सत्सुख या करने के लिये छूटी हुई है। प्रकृति तो नियमोसुसुख ( सुशिम्मो ) कहना चाहिये। नुसार काम करती है, इच्छानुसार नहीं । प्रकृति ___ जो सुख भविष्य मे न सुख पैदा करनेवाला में इच्छा है ही नहीं कि वह इच्छानुसार कार्य हे न दुख पैदा करनेवाला है. वर्तमान मोग के कर सके। इसलिये कुछ न कुछ प्राकृतिक दुख पाद वह निर्बीज होकर समाप्त होजायगा उसे मनुष्य के पीछे पड़े ही रहते हैं। मरण आदि के अवीज सुन या फलसुख (फायसुखो) कहना
दुख तो अनिवार्य हैं और जन्म विकास आदि चाहिये । ज्ञानानन्द विपयानन्द आदि अधिकतर
की दृष्टि से श्रावश्यक भी है, अधिक गर्मी भी
वर्षा के लिये जरूरी होती है इसलिये उसकी भी इस श्रेणी के सुख कहेजाते हैं। कभी कभी अन्य
उपयोगिता है फिर भी प्रकृति के द्वारा किये गये सुख भी इस श्रेणी के सुख बनजाते हैं।
कुछ कष्ट ऐसे हैं जिनकी जरूरत नहीं है । भूकम्प, जो सुख अधिक दुख पैन करनेवाला है अतिवर्षा, अतिशीत अत्युष्णता आदि अनेक कष्ट वह दु.खबीज मुख है। यह बुरा है इसलिये इसे इसी तरह के हैं। दु सुख (वशिम्भो) कहना चाहिये । विवेक और २-परात्मकृत या परकृत (बुभजेर)-दूसरे मर्यादा का ज्ञान न होनेपर कोई भी सुरव दुःसुख प्राणियों से भी बहत से दुःख मिलते हैं। हीन बनाया जासकता है । रौद्रानन्द इसी श्रेणी का ।
और निर्बल जाति के प्रभारियों के आधारपर सुख है। इससे सदा बचना चाहिये। __उपाच विचार में दुःखसुख की इन श्रेणियो हुआ है इसलिये कुछ परकृत दुख तो अनिवार्य
उच्च और सबल जातिकं प्राणियों का जीवन टिका को ध्यान में रखना चाहिये। तभी विश्वसुख- पर बहुत से परकत दुख पराणियो की खासवर्धन की दृष्टि से इनका ठीक विचार किया कर मनुष्य की स्वार्थपरता के कारण है। चोरी जासकेगा।
व्यभिचार परिग्रह विश्वासघात का , आदि हमें दुःखबीज दुःख और अबीज दुःख दूर के पर कृत दुःख ऐसे हैं जिन्हे अनिवार्य नहीं करना है और और सुखबीज सुख और अबीज कहा जासकता । मनुष्य सरीखे एक जातिके पाणी सुख पाना है इसलिये इन्हीं दोनों बातो का यहा में जो परस्पर दु खदान होता है वह अक्षन्तव्य है। विचार किया जाता है।
३-स्वात्मकृत या स्वकृत ( एमजेर) दुःख तीन द्वार-जो दुल हमे दूर करना है उन है अपने मनोविकारों या मूर्खता आदि से पैदा दुःखों के आने के तीन द्वार हैं-१-प्रकृतिद्वार, होनेवाले दु.ख । प्रकृति के द्वारा या दूसरो के २-परात्मद्वार, ३-स्वात्मद्वार । प्रकृतिद्वार से आने द्वारा दु ख का उचित और पर्याप्त कारण न होने वाले दुख को प्राकृतिक दु.ख कहना चाहिये। पर भी प्राणी अपनी लालसर तृपया ईण्या मंड 'परामद्वार से आनेवाले दुःख को परात्मकृत क्रोध छल घृणा आदि वृत्तियों के कारण काफी 'कहना चाहिये, और अपने भीतर से पैदा होने. दुखी होता है । इन दुखों की जिम्मेदारी न वाले दुःख को स्वात्मकृत कहना चाहिये । प्रकृतिपर है न किसी दूसरेपर, किन्तु अपने पर
१-प्राकृतिक ( शोउम्पजेर ) यद्यपि संसार है। ये स्वस्त दुःख जीवन के कलक हैं। कोई में प्रकृति ने दुख की अपेक्षा सुख अधिक भर आदमी सेवा आदि से महान होगया और उसकी रक्खा है, फिर भी दुख का पूरी तरह थमाव महत्ता से अगर हमारा दिल जलता है, तो इसमें । वह कर नहीं सकी है। ज्ञानानन्द जीवनानन्द हमारा ही अपराध है । सीता के सौन्दर्य से
विपयानन्द की सामग्री उमने काफी मर रक्खी रावण की लालसा ती हुई नो इममें दसरा