Book Title: Satyamrut Drhsuti Kand
Author(s): Satya Samaj Sansthapak
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 39
________________ - - - - - - - - - - - - दृष्टि से यह अवसर पर भी सत्य है, इसलिये वत्सलता मैत्री व्या आदि की भी बात है। मात्रा इसे उभय-सत्य (टुमसत्य ) कहेगे। से अधिक होनेपर जीवन में इनका समन्वय नहीं पर भी प्रसर आते हैं कोर्ट होपाता है। सामान्यसत्य किसी विशेष परिस्थिति में असत्य पर जो वस्तुओं का समन्वय बताया गया (प्रकल्माणकारी ) होजाता है। जैसे मैत्री करना है उसमे परिस्थिति का विचार मुख्य है इसलिये सामान्य सत्य है पर किसी से दुर्जन से मैत्री यह समन्वय पारिस्थितिक समन्वय (लंजिलकोजाग जिसकी संगति से चरित्रपनन को सम्मा- शतो) कहलाया। समन्वय का गही तरीका श्रेष्ठ वना हो तो - सी मैत्री असत्य होजायगी । ऐसी है। इस समन्वय को भुलाकर हम ऐतिहासिक अवस्था में मैत्री का सामान्यप में ही समन्वय घटनाओं को ठीक ठीक नहीं समझ सकते । जिन (पासवतो )शिया आमकता है उम विशेष अव- दिनो अन्न पैदा न होता हो, जगलो को मिटाकर सर पर नहीं। काफी मात्रा में खेती के लिये जमीन न निकाली कभी कभी से वसा भी धाते जान गई हो, जंगली जानवरो के कारण खेती की रक्षा सासन्य रूप में अकल्याणकारी बात विशेष छाशक्य ाय हो, उन दिनों लोग जंगली जानवगे अवसरपर कल्याणकारी होसकती है। जैसे को मारते हो यह स्वाभाविक है। पर जब परिअभिमान करता अकल्याणकारी है पर जो व्यक्ति स्थिति वदलजाय जमीन काफी हो, अन्न काफी अत्यन्त घमण्डी और नम्रता का दुरुपयोग करने हो, जंगली जानवरो का उपद्रव न हो तब जानवाला हो, उसके सामने अावश्यक घराण्ड बनाना वरी को मारना अनुचित है। इन परिस्थितियों मत्य है इसलिये इसे सामान्य सत्य न कहकर को भुलाकर हम एक परिस्थिति में रहकर अपनी अवसर-सत्य कहना चाहिये। इसका समन्वय परिस्थिति को कसौटी बनाकर दूसरी परिस्थिति अबसर-समन्वय (चसशत्तो ) कहा जायगा।। के कार्यों की निन्दा करें तो यह अज्ञान कहा जायगा। पारिस्थितिक समन्वय से सत्य का जो जिस रूप में सत्य है उसका उसी रूपमें दर्शन होता है। इसके कारण हम दूसरे युग के समन्वय करना चाहिये। अन्य रूप में समन्वय सत्य की न निन्दा करते हैं, न उसका अन्धानुकरना निशत्तो ( मिथ्या समन्वय ) है। करण (मोलुक लुचो) करते हैं न अपने युग के जो बात सामान्य रूप में भी असत्य हो सत्य को भुलाते हैं। और जिस अवसरपर उसका उपयोग होरहा है कुछ लोग वस्तु या अर्थ को भुलाकाश-दो । उस रूप में भी असत्य हो उसका समन्वय करना को पकड़कर समन्वय का डौल करते हैं । वे अनुचित है। जैसे जातिपाति मानना सामान्य शब्दो का अर्थ बदलकर प्रकरण-संगत सम्भव रूप में असत्य है और अाजकल भी अकल्याण- अर्थ को छोडकर आवश्यकता के अनुसार अर्थ कारी है इसलिये यात्र उसका समन्वय नहीं करके समन्वय करते हैं । यद्यपि इस समन्वय में किया जासकता। भी बात कल्याणकर ही कही जाती है फिर भी कभी कभी किसी चीज का समन्वय मात्रा वह विश्वसनीय नहीं होनी । अर्थ बदल देने से के आधार से होता है। अतुक माना मे किसी एक तरह से वह शब्द का ही समन्वय होता है। बात से लाभ होता है अधिक मात्रा से नुकसान जैसे कि कोई गोवध को श्रावश्यक बतलाये तो होना है। लाभप्रद मात्रा को समन्वय माना गो का अर्थ गाय न करके इन्द्रिय करना सिर्फ (शतो उंटो) कहते हैं। जैसे भोजन करना शद-समन्वय हुआ, वास्तविक अर्थको छोड देने अच्छा है पर पचने की शक्ति से अधिक कर से अर्थ समन्वय न हुआ । लिया जाय तो हानिप्रट होजायगा। इसी तरह इसकी अपेक्षा यह कहना कि गोवध (नाय

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