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प्राचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमलजीकृत सम्यतज्ञानचन्द्रिका
पीठिका
॥ मंगलाचरण ॥ बंदौं ज्ञानानंदकर, नेमिचन्द गुणकंद । माधव बंदित विमलपद, पुण्यफ्योनिधि नंद ।। १ ।। दोष दहन गुन गहन धन, परि करि हरि अरहंत । स्वानुभूति रमनी रमन, जगनायक जयवंत ॥२॥ सिद्ध सुद्ध साधित सहज, स्वरससुधारसधार। . समयसार शिव सर्वगत, मर्मत होहु सुखकार ॥ ३ ॥ जैनी वानी विविध विधि, वरनत विश्वप्रमान । स्यात्पद-मुद्रित अहित-हर, करहु · सफल कल्यान ॥ ४ ॥
मैं नमो नगन जैन जन, झान-ध्यान धन लीन । ... मैन मान बिन दान धन, एन हीन तन छीन ।। ५॥१
.. इहबिधि मंगल करन तै, सबविधि मंगल होत । . :. : होत उदंगल दूरि सब, तम ज्यौं भानु उदोत ।। ६ ।।
-:: : : सामान्य प्रकरण . . .
अथ मंगलाचरण करि श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रंथ, ताकी देशभाषामयी टीका करने को उद्यम, करी हौं । सो यहु ग्रंथसमुद्र तौ ऐसा है जो 'सतिशय बुद्धि-बल संयुक्त जीवनि करि भी जाका अवगाहन होना दुर्लभ है । पर मैं मर्दबुद्धि अर्थ प्रकाशनेरूप याकी टीका करनी विचारौं हौं ।
.. सो यह विचार ऐसा भया जैसे को अपने मुख ते जिनेंद्रदेव' का सर्व गुण वर्णन किया चाहै, सो कैसे बने ?
इहां कोऊ कहै - नाहीं बन है तो उद्यम काहे कौं करौ हौ ? - . .ताकौं कहिये है - जैसे जिनेंद्रदेव के सर्व गुरग कहने की सामध्ये नाही, तथापि भक्त पुरुष भक्ति के वश तें अपनी बुद्धि अनुसार गुरण वर्णन कर, तैसें इस ग्रथ का संपूर्ण अर्थ प्रकाशने की सामर्थ्य नाहीं। तथापि अनुराग के वशं ते मैं अपनी बुद्धि अनुसार ( गुण )२ अर्थ प्रकाशोगा। १. यह चित्रालंकारयुक्त हैं। २. गुण शब्द ए प्रति में मिला।