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( २२ ) आखिर में अपने पूज्य गुरु श्री कृपाचंद्रसूरिजी का वह वचन याद कर संतोष करना पड़ता है कि "समयसुन्दर ना गीतड़ा, भीतां पर ना चीतरा या कुम्भे राणा ना भीतड़ा" अर्थात् दाबालों पर किये गये चित्रों का और राना कुम्भा के बनाये हुये मकान और मन्दिरों का पार पाना कठिन है उसी तरह समयसुन्दर जी के गीत भी हजारों की संख्या में और जगह-जगह पर बिखरे हुए हैं उन सबको एकत्र कर लेना असम्भव सा है। पचासों संग्रह-प्रतियां हमें त्रुटित व अपूर्ण मिली हैं । उनके बीच के और आदि अन्त के पत्र माला के मोतियों की तरह न मालूम कहाँ कहाँ बिखर गये हैं। बहुत से तो उनमें से नष्ट भी हो गये होंगे। इसी तरह समयसुन्दर जी का विहार भी राजस्थान और गुजरात के बहुत लम्बे प्रदेशों में था और उनके शिष्य प्रशिष्य भी बहुत थे। अतः उन सभी स्थानों और व्यक्तियों में प्रतियां बिखर चुकी हैं। जालोर, खम्भात, अहमदाबाद आदि स्थानों में जहां कवि कई वर्षों तक रहे थे, उन स्थानों के भण्डारों को तो हम देख ही नहीं पाये ।
महान् गीतिकार समयसुन्दर गीति काव्य के सम्बन्ध में हिन्दी साहित्य में इधर में काफी चर्चा हुई और कई बड़े-बड़े ग्रन्थ भी प्रकाशित हुये, लेकिन अभी तक आज से ४००/५०० वर्ष पहले कितने प्रकार के गीत प्रचलित थे, उनका शायद किसी को पूरा पता नहीं है। जिस प्रकार लोक गीतों के अनेक प्रकार हैं-अनेक राग-रागनियां हैं, हर प्रसा के गीतों के अलग-अलग नाम हैं, उसी तरह विद्वानों के रचित गीतों के भी अनेक प्रकार थे। उनकी अच्छी झांकी समयसुन्दरजी के इस गीत संग्रह से मिल सकेगी। वैसे तो प्रायः सभी लघु रचनाओं की संज्ञा गीत ही दी गई है, पर उनके प्रकारों की संख्या
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