________________ . ... -उपाद्धात .... " प्रिय पाठक वृन्द ! 1. प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत ग्रन्थ -का-भाषातुवाद है। मूल. संस्कृत पुस्तक के रचयिता तपागच्छाधिराज सोम सूरि के पट्ट प्रभावक. युग: प्रधान मुनि सुन्दर सूरि के शिष्य वाचनाचार्य सोममण्डन गणी थे। प्राचीन काल से ही भारत के साहित्य प्रेमियों ने कथा प्रणाली का बहुत आदर किया है। इसका मुख्य कारण यह है कि इस कथा प्रणाली द्वारा उपदिष्ट विषय सरल और मनोहर होने से 'भाबाल-वृद्ध सब को रुचिकर होते हैं। इस पुस्तक के निर्माता में भी उसी का अनुसरण करके बड़ा लोकोपकार किया है। इस पुस्तक / में लेखक ने सरल और सुन्दर 2 दृष्टान्त देकर दान, शील, तप और भाचं रूप से विभक्त धमें को समझाने की बहुत कोशिश की - है और उसमें सफल हुए हैं / Aair!! ... : यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि धर्म ही इह लौकिक और पारलौकिक सुख का प्रधान कारण है। परन्तु उसके भेद जाने बिना व उसका सम्यक रूप से चिरणं किये बिना धर्म का कुछ भी फल नहीं मिलता। इसी कारण से मूल लेखक ने धर्म के. दान, शील, तप और भाव इस प्रकार चार भेद करके और उनमें "मैं बड़ा हूं मैं बड़ा हूं' ऐसा विवाद दिखला कर यह निर्णय किया है कि ये दानादि धर्म सापेक्ष हैं अर्थात् साथ 2 ही व्यवहार में लाये जाते हैं; पृथक नहीं। सापेक्ष होने के कारण ही नय कहलाते हैं। यदि उनमें सापेक्षता न हो तो ये कुनय कहे जा सकते हैं। इन चारों में दान का प्रभाव सर्व श्रेष्ठ है। क्योंकि दानी के द्वार पर बड़े 2 निस्पही "जो कंचन कामिनी और राज्य के सुख की भी इच्छा मही P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust