Book Title: Ratnapala Nrup Charitra
Author(s): Surendra Muni
Publisher: Pukhraj Dhanraj Sheth

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Page 99
________________ ___ 82] रत्नपाल नृप चरित्र * / के भार को उठाओ। क्योंकि में बहुत थक गया हूँ और - तेरी शरण में आया हूं, तेरे सुख को सेवन करना चाहता हूँ। इस प्रकार निर्धन से कहा हुआ शव एकाएक शमशान में जाकर "दारिद्रय से मरण श्रेष्ठ है" ऐसा सोचकर चुप रहा। जैसे तैसे सुख दुख से अपना निर्वाह करने वाले बुभुक्षित लोग दूसरों के धन को लेकर पोत-यात्रा में भले ही जांय / परन्तु 'धन सम्पन्न' तुझे नहीं जाना चाहिए। जो धनी. लोग ऐसे क्लेशकारक कर्म में लगे रहते हैं, वे भोग और त्याग से विमुख हुए निश्चय ही भाग्य भरोसे कार्य करने वाले हैं। विद्वानों ने शास्त्र में उदर को दुष्पूर अवश्य कहा कहा है, तथापि वह इष्टान्न के भोजन से दो प्रहर तक संतुष्ट रहता है। असंख्य सुवर्ण तथा रत्न आदि से और मनोहर भोजन से लुब्ध प्रकृति मन तो क्षण भर भी कभी सन्तुष्ट नहीं रहता। घर में चाहे असख्य मणि-मुक्ता और स्वर्ण की राशिये हों, तो भी तुष्टि और पुष्टि तो मनुष्यों की खान पान से ही होती है। ऊपर कहे हुए कारण से निर्वाह के योग्य धन के घर में रहते मूर्ख लोग व्यर्थ ही क्यों क्लेश उठाते हैं ? अत्यन्त अद्भुत धन की प्राप्ति होने पर भी लोभ का अन्त तो कहीं होता ही नहीं। धनहीनः शतमेकं सहस्र शतवानपि / सहस्राधिपतिर्लक्षं कोटि लक्षेश्वरोऽपि च // 1 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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