________________ * चतुर्थ परिच्छेद : [ 111 धनदत्त का जीवन-वह विदेशी श्रावक था। पूर्व भव के उपकार से सदा उस समय दुख में जागत रहता था, जिसको तूने मरण समय में आराधना और उपवास कराया था। वह देवता होकर समय 2 पर तेरा उपकारी हुआ। तेरे पुराने भव की नौ ही स्त्रियें यहां आकर नीरदान से उत्पन्न हुए सद्भोग को साथ ही भोगने के लिए तुझे मिल गई / , वह श्रीदेवी उन स्त्रियों में श्रेष्ठ रानी शृंगारसुन्दरी हुई। उसने सहस्र जन्म के पहिले कायोत्सर्ग में रहे हुए मुनि को हास्यपूर्वक धूलि से अपमानित किया था। उसी कारण से इस जन्म में अनेक प्रकार की विडम्बनाएं इसको मिली। / 'पूर्वभव में कनकमंजरी ने नौकर को हे कुष्ठिन् ! तू मेरे कथन को नहीं मानता, इस प्रकार गाली दी थी। इसी प्रकार गुणमंजरी ने भी सेवक को "ऐ अन्धे!” इस प्रकार गाली दी थी। इस भव में वो यो व्याधि उन 2 कर्मों के फल से उनके हुई / पूर्वभव में इन स्त्रियों ने गाली देकर फिर थोड़ी दया नौकरों पर की, इस कारण से वैसी भयंकर व्याधि भी उनकी शान्त हो गई। { जो तूने उस समय तूम्बा भर निर्दोष पानी श्रद्धापूर्वक साधुओं को दिया था, उसी से सब प्रयोजन को सिद्ध करने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust