________________ ॐ चतुर्थ परिच्छेद * . [ 107 स्वर्ण की स्वामिनी अनंगलेखा नामक वैश्या के घर में सार्थेश धनिक का वेश धारण किये हुए आया। उस समय उसे बड़ा धनी समझकर कपट में प्रवीण वैश्या अपना प्रेम दिखाती हुई बोली-मैंने आज स्वप्न में तुम्हारे से बारह करोड़ स्वर्ण पाये हैं। कल्पद्रुम के समान तेरे आगमन से वह स्वप्न सत्य हो गया। वह बोला-हे शुभे! यह सत्य है, मैंने स्वप्न में बारह कोटि स्वर्ण तेरे घर में इनामत रक्खी है। अच्छे भोग / के सुख में लुब्ध मन वाला मैं 12 वर्ष तक तेरे घर में रहूँगा। यह साफ साफ कहकर फिर कहने लगा-इस वक्त तो मेरा सथवाड़ा देशान्तर में जाने को उत्सुक है। क्योंकि मैंने व्यवसाय में वहां बहुत लाभ उठाया है। इसलिए वहां जाकर बहुत धन उपार्जन कर तेरे सौभाग्य से खिंचा हुआ शीघ्र तेरे घर आऊंगा। इस कारण वो बारह कोटि स्वर्णराशि शीघ्र मुझे दे दे। इस प्रकार कहते हुए धूर्त ने उसका हाथ पकड़ लिया। “ये क्या कर रहे हो ?" ऐसा कहती हुई वैश्या को वह चौराहे में ले आया। उनका विवाद किसी समझदार ने नहीं तोड़ा / पहिले तो वैश्या होने से हास्यास्पद थी. ही, फिर इस विवाद से विशेष विकल हो गई। इस धूर्त विवाद से किसी प्रकार छुटकारा पाने की इच्छा से अपने नौकर द्वारा सर्वत्र पटह बजवाया कि P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust