________________ * चतुर्थ परिच्छेद * [106 '' .. .. .. तत्काल ही मृत्यु दशा में पहुँच गया। तदनन्तर वह राक्षस आकाश में स्थित होकर कहने लगा-यदि कोई अपनी बलि मुझे दे तो मैं राजा को छोड़ सकता हूँ। मन्त्री आदि सब घर बैठे मौत बुलाने के न्योते को मानने में असमर्थ हुए / सत्वहीनता से पुरवासी भी लज्जित हुए नीचा देखने लगे। / उस समय परोपकारनिष्णान्त धनदत्त ने राजा की रक्षा करने के विचार से राक्षस को अपनी बलि दे दी। उसके आत्मबल से प्रसन्न हुए राक्षस ने शीघ्र ही राजा को छोड़ दिया और बारह कोटि स्वर्ण की वर्षा कर अन्तर्द्वान हो गया। वह राक्षस क्रूर जाति का मांस भक्षी नहीं था। बल्कि मनुष्यों के आत्मबल की परीक्षा करने के लिए उसने ऐसी याचना की थी। तदनन्तर कृतज्ञ राजा ने अपना अत्यन्त उपकार करने वाले धनदत्त को सब व्यवहारियों में मुख्य बना दिया। भद्र प्रकृति, पाप से भयभीत तथा सौम्य दृष्टि राजा, अपनी प्रजा का पालन न्यायपूर्वक करने लगा। एक दिन वसन्त ऋतु में क्रीडा-कौतुकी राजा अपने अन्तःपुर के साथ नगर के बाहिर. उद्यान में गया। वहां सूपकारों ने (रसोइयाने) राजा की आज्ञा से नाना प्रकार की P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust