________________ 114 ] * रत्नपाल नृप चरित्र ... उपरोक्त कारण से इस संसार में विषयान्तर को छोड़कर विद्वान् को सर्वज्ञ भाषित धर्म का सार संग्रह करना चाहिए। इस प्रकार निर्मल चित्त नृप रत्नपाल विषयों की महिमा से विरत हुआ प्रव्रज्या 'दीक्षा' के ग्रहण करने में दृढ़संकल्प हो गया। तदनन्तर अच्छे गुणों द्वारा जिनको परम उच्च स्थान पर पहुँचाया था, वे मुख्यमन्त्री तथा सामन्त और मित्र लोग उस समय रत्नपाल राजा से कहने लगे-हे स्वामिन् एक आपके ही सहारे जीवित रहने वाले हम लोग कल्पवृक्ष के सदृश आपसे च्युत हुए पुष्प की तरह हाय ! कैसे हो जायेंगे और नाना भोग को भोगने वाले अन्तःपुर के लोग आपके छोड देने पर मस्तक से गिरे हुए केशों की तरह कैसे हो जायेंगे ? हे न्यायनिष्ठ ! हे गुण श्रेष्ठ ! आपसे लालन पालन की हुई यह प्रजा माता-पिता के सदृश सुख किस से पाएगी? इस प्रकार. मोह को उत्पन्न करने वाले उनके वाक्यों को सुनकर भी राजा रत्नपाल का मन स्थिर वैराग्य से कुछ भी विचलित नहीं हुआ। ... तदनन्तर नृप रत्नपाल ने अपनी प्रतिमा सदृश पुत्र मेघरथ को सब सामन्त राजाओं के सामने ही राज्यसिंहासन P.P.AC. Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust