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________________ FDAY श्री जिनेन्द्राय नमः Sul सुरेन्द्रमुनिग्रन्थमालायाः प्रथमो मणि रत्नपाल नृप चरित्र . : भाषान्तरकर्ता : विद्यानुरागी श्री सुरेन्द्रमुनिजी महाराज " साहित्यरत्न" P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ -~~ परमपूज्य तपोगच्छाधिपति श्री 1008 श्री मोहनलालजी महाराज -: सद्गुरुभ्यो नम : E --ॐ श्री रत्नपाल नृप चरित्र * हिन्दी भाषानुवादक हिन्दा मा * विद्याप्रेमी श्री सुरेन्द्र मुनिजी महाराज * __ वीर सं० 2480 / ___ मोहन सं० 48 ( प्रथमावृत्ति 1000 मूल्य 0-12-0 / विक्रम सं. 2011 / ईस्वी सन् 1954 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ प्रकाशक:__* सेठ पुखराज धनराज मु० पो० रानी (राजस्थान) मु. पो.. Serving jinshasan 111391 gyanmandir@kobatirth.org -OJa ga / सर्व हक स्वाधीन ? सर्व हक्क स्वाधीन प्राप्ति स्थानः- . सौभाग्यचन्द्र किस्तुरचन्द्रजी लोढ़ा मु. पोस्ट- सावन वाया नीमच (मध्यभारत) - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ परमलहितनामधेय सकलागयरहस्यवित् विद्वद्वृन्द वन्दनीय प्रातःस्मरणीय घरपक्षान्त सपोगच्छाधिपति पूज्यपाद अनुयोगमा मायालजी महाराज श्री श्री 1008 83 औ होरयुनिजी गणीवर * जन्म संवत् 1945 आषाढ शुक्ला 2, सिहोर दीक्षा संवत् 1965 जेष्ठ शुक्ला 5, वडनगर (मालवा) .. गणी तथा पन्यासपद सं. 1979 फाल्गुन शुक्ला 3 सुणेल गुजराज P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * सादर समर्पणःपरम पूज्य विशुद्ध चारित्र चूड़ामणी प्रातःस्मरणीय सुविहितनाम धेय विद्वद्वन्द वन्दनीय धर्मधुरंधर आगमपरिशीलनशाली शास्त्रविशारद व्याख्यान वाचस्पति परमशान्त अनुयोगाचार्य पन्यासजी महाराज श्रीमद् हीर मुनिजी गणि के करकमलों में यह कृति सादर समर्पण करता हूँ लेखक-विनीत चरणोपासक सुरेन्द्र / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ // श्री जिनेन्द्रायनमः॥ परम सुविहित नामधेय सकलागम रहस्यवित् पूज्य अनुयोगाचार्य पन्यासजी श्री हीर के मुनिजी महाराज साहिव की संक्षिप्त र जीवन प्रभा सौराष्ट्र प्रान्त में सुरासुर नरसेवित परम पवित्र तीर्थाधिराज श्री शत्रुजय महागिरि की शीतल छाया में अगण्य पुण्यशाली वापी. वप्र. विहार वर्ण वनितादि से मण्डित शिहोर नाम का नगर है। उसी नगर में आपका जन्म संवत् 1945 के आषाढ़ शुक्ला द्वितीया को जैन वीशा श्रीमाली जाति में हुया था। आपके पिता का नाम मावजी भाई एवं माता का नाम दिवाली देवी था। पुत्र-जन्म से माता-पितादि के हर्ष का पार न रहा और इस खुशी के उपलक्ष में जिन प्रासाद में अष्टान्हिका महोत्सव, दीन दुखियों को दानादि _ दिया। तत्पश्चात् सूतक निवृत्ति के बाद स्वजन-वर्ग के सन्मुख नवजात शिशु का नाम * हीरालाल * रक्खा गया। वास्तव में "यथा नाम तथा गुण" की कहावत के अनुसार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ही आप गुण के भण्डार हैं। क्रम से माता-पिता द्वारा लालन-पालन किये जाने पर जिस प्रकार शुक्ल पक्ष में नक्षत्रेश दिन प्रतिदिन बढता जाता है, उसी. भांति माता-पिता के मनोरथ के साथ बढने लगे। जब आपकी आयु 5 वर्ष की हुई तब नीति अनुसार आपको एक अच्छे सुशिक्षित कलाचाये के निकट विद्याधयन के लिए रक्खे गये। अल्प काल ही में आपने अपनी तीव्र बुद्धि का परिचय दे दिया। शिक्षक इनके विनयगुण व विद्याभ्यास के परिश्रम को देखकर आप पर नित्य प्रसन्न रहा करता और सहपाठी ईर्ष्या से जलते रहते / व्यवहारिक ज्ञान के साथ साथ आप धार्मिक अभ्यास भी . करते रहे। केवल सात वर्ष की वाल आयु में आपने. दो प्रतिक्रमण मौखिक याद कर लिये। बचपन से ही आपकी : प्रवृत्ति धर्म के प्रति विशेष थी। नित्य पिताजी के साथ जिन मन्दिर में दर्शन करने के लिये तथा उपाश्रय में व्याख्यान श्रवण के लिये जाया करते थे। यदि अपने गांव में किसी मुनिराज का आगमन सुनते तो आपका मुख प्रफुल्लित हो जाता और तुरन्त ही वहां जा पहुँचते / तथा उनके मुखारविन्द से सुधामयी भारती का श्रवण करते, उन उपदेशों को अपने जीवन में परिणित करने की कोशिश करते / अन्त में इन्होंने उन प्रवृत्तियों को मन में वसा ली और वैराग्योपदेश का सहारा मिलने पर संसार रूपी भव समुद्र से पार उतारने P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ (3), वाले चारित्र रूपी नांव का सहारा लेने का मन में दृढ़संकल्प कर लिया। इन भावनाओं को सफल बनाने के लिए आप रात-दिन निमग्न रहा करते / आखिर उन चिन्ताओं से = निवृत्ति पाने के लिए एक दिन घर से भाग निकले और गोधे में पन्यासजी श्री गम्भीर विजयजी महाराज के पास आ / पहुँचे / बचपन से ही आपका संसार के प्रति अनुराग न था, . इसका यह पारणाम / 1 . इंधर आपके पिता जो नगर सेठ थे। पुत्र-रत्न को घर | में न पाकर आकुल-व्याकुल हो चारों तरफ खोज करने लगे। परन्तु आपका कहीं पता न लगा। दूसरे दिन किसी व्यक्ति ने कहा कि आपके पुत्र गोधे में पन्यासजी महाराज साहब के पास हैं। इस प्रकार सन्तोषजनक समाचार पाकर मातापितादि का हृदय शान्त हुआ। वे उसी समय गोधे गये और बालक हीरालाल को समझाकर वापिस घर ले आये। लेकिन धार्मिक प्रवृत्तियों में रंगे हुए व संसार रूपी विषपन्नग से डरे हुऐ होने के कारण यह संसार इन्हें नहीं भाया / इनके पिता ने इनको संसार श्रृंखला में बांधने के लिए बहुतेरे उपाय किये मगर वे सब निष्फल हुए। कुछ समय निकाल कर फिर घर से निकले और स्वजन-सम्बन्धियों से नजर बचाकर सीधे रेल्वे स्टेशन पर पहुंचे। ठीक उसी समय ट्रेन आचुकी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ थी, आप तुरन्त उसमें जा बैठे तथा बम्बई पहुँच गये / वहां आप एक घी के व्यापारी की दुकान पर कुछ समय तक रहे / एक दिन आपने अपने एक धर्ममित्र से अपनी भावना प्रकट की। इस पर उनके मित्र ने कहा-इस समय प्रौढ़प्रतापी वचन सिद्ध श्रीमान् मोहनलालजी महाराज साहब के प्रशिष्य तपस्वीजी श्री कल्याण मुनिजी महाराज साधु-समुदाय सहित वड़नगर (मालवा) में हैं। उनके पास आप जाइये और अपना कार्य सिद्ध कीजिये / वे अत्यन्त सरल प्रकृति के हैं तथा विद्वान् भी अद्वितीय हैं। मित्र के ऐसे वचन सुनकर आप अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसी समय वहां से रवाना होकर बड़नगर में आये, जहां कि तपस्वीजी महाराज थे। वहां जाकर आपने गुरुवर्य को भावपूर्वक वन्दन किया, तदनन्तर आपने अपनी भावना को महाराज साहब के सन्मुख प्रकट की। तपस्वी महाराज ने भी इनका मुख तेजस्वी तथा वैराग्य रंग से रंगीन जान बड़नगर (मालवा) में संवत् 1965 की ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को बीस वर्ष की पूर्ण युवावस्था में दीक्षा प्रदान की तथा श्रमणोचित्त योग्य शिक्षाऐं दी। गुरु के सान्निध्य में रहकर आपने चारित्र का सुचारु रूप से पालन कर आत्मा को उच्च शिखर पर चढ़ाया। - बाल ब्रह्मचारी मुनिराज ने चन्द समय में ही विनय गुण व भक्ति द्वारा सर्व स्थित मुनियों को रंजित कर दिया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ अब क्रम से आपने पूज्यपाद प्रवर्तकजी श्री कान्ति मुनिजी महाराज जो कि कल्याण मुनिजी महाराज के काका गुरु थे, उनके सान्निध्य में रहकर धार्मिक विद्याध्ययन करना आरम्भ किया और कुछ ही काल में आपने पंच प्रतिक्रमण नव स्मरण, प्रारण भाष्य, कर्मग्रन्थ, वृहत् संग्रहणी, क्षेत्र समास, तत्वार्थ सूत्रादि का सम्यक् प्रकार से स.र्थ अध्ययन कर लिया। उसके बाद आप एक अच्छे विद्वान् पण्डित के पास सारस्वत व्याकरण पढने लगे। साथ ही साथ कोष, न्याय, काव्यादि का अभ्यास भी किया करते थे। अब आपकी वक्तृत्व शैली भी अवर्णनीय हो गई। आप जिस वक्त व्याख्यान देते, उस समय सचमुच माधुर्य टपकने लगता। आपका पहिला चातुर्मास मेहदपुर (मालवा) में हुआ, उसके बाद अनेकों चातुर्मास आप स्थान-स्थान पर करते रहे। सुअवसर मिलने पर आपने पूज्य पन्यासजी श्री हर्ष मुनिजी की अध्यक्षता में रह, उत्तराध्ययन, आचारांग, कल्पसूत्र, महानिशीथ सूत्रादि के योगोद्वहन किये। दिनोंदिन तपस्या और विद्याभ्यास से आप ख्याति प्राप्त करने लगे। सम्वत् 1978 में पन्यासजी श्री शान्ति मुनिजी सूरि महाराज़ अति आग्रह होने पर आपने भगवती सूत्र के योगोद्वहन में प्रवेश किया तथा सम्वत् 1979 के फाल्गुन शुक्ला 3 को P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ न -: गुरु-स्तुति :- अम.. चंचल मन को कर निज अधीन बनते इन्द्रिय जित सभीचीनं / है अन्तःकरण पवित्र शांत, गंभीर सिन्धु सम जो नितान्त // सद्गुरु गण से भूषित महान् , हो तपोरूप तुम मूर्तिमान / तुम शुचिता समता के सुधाम, हे ! हीर मुनि तुमको प्रणाम / / श्री तपागच्छ गगनांगण में, विस्तृत वसुधा के प्रांगण में / तव कीर्ति पताका का प्रसार, भूतल नभतल के हुआ पार // - तुम वसुधा की अनुपम विभूति, तुमसे होती सन्मति प्रसूति / 5 तुम चिदानन्द रत हो अकाम, हे हीर मुनि तुमको प्रणाम | तुम यशः शुक्ल तुम तपः शुक्ल, शुचि वश्यों में बनते सुशक्ल / हे मुने ! तुम्हारा मधुर जाप, भक्तों के करता ध्वंस पाप // तुम अशरण शरण अनाथ नाथ, तुमसे वसुन्धरा है सनाथ / तुम करुणा के सागर प्रकाम, हे हीर मुने! तुमको प्रणाम / / आत्मस्थ भाव में लीन मूर्ति, करती अभाव की अचल पूर्ति / : बहु हितकर रुचिकर सरस सूक्ति, देती भक्तों को भुक्ति मुक्ति // उपदेश सुधा सरसा अमला, कर अमर शान्ति देती अचला / "तुमसे दृढ़ अंगीकृत वियाम, हे हीर मुने ! तुमको प्रणाम // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ (6) जगती के जन दुख पंक मग्न, जो कर्तव्यों से है विलग्न / पापों की भीषण रूप रास, देती है उनको प्रवल त्रास // ऐसे जब जन तुमरे अधीन, होते तब बनते दुख विहीन / तव परम शान्तिमय रूप नाम, हे हीर मुने ! तुमको प्रणाम // तुम दृढ़ वृत्ति तुम तपोनिष्ठ, फिर मधुर भाव तुम में विशिष्ट / तव स्मितियुत आनन का प्रकाश, करता मन पंकज का विकाश // सत् कृति के नाशक वे विकार, तुम पर नहिं कर सकते प्रहार / तुम आत्म भावना से ललाम, हे हीर मुने ! तुमको प्रणाम // रहते अधीन तुमरे जो जन, उनके सब पाप ताप मोचन / करते भव बाधा की प्रशान्ति, हरते तुम सब अज्ञान भ्रान्ति॥ विध्वंसित तुमसे दुर्विचार, विस्तारित है बहु सद् विचार / अति पावन है तव गुण ग्राम, हे हीर मुने ! तुमको प्रणाम // दुर्ललित काम क्रोधादि मार, जगतीतल में करते विहार / बहु पूजित बहु संमानित तुम, बहु वंदित बहु आनन्दित तुम॥ हे महा मुने ! मैं हूँ अजान, किस भांति करू तव कीर्ति गान। वस जाप करूं तव ललित नाम, हे हीर मुने ! तुमको प्रणाम // ___ रचयिता-सुरेन्द्र P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ प. पू. पन्यासजी श्रीमद् हीरमुनिजी महाराज साहबके पट्टप्रभावक शिघ्यरत्न वैयावनकरणदक्ष विद्यावारिधि पन्यासप्रवर * श्री श्री सुन्दर मुनिजी महाराज साहब * जन्म संवत् 1968 मार्गशीर्ष शुक्ला 5, रुणीजा (मालवा) दीक्षा संवत् 1992 कार्तिक शुक्ला 2, अहमदाबाद पं. पदवी पालीताणा सं. 2011 वैशाख शुक्ला 1 Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.
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________________ . ... -उपाद्धात .... " प्रिय पाठक वृन्द ! 1. प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत ग्रन्थ -का-भाषातुवाद है। मूल. संस्कृत पुस्तक के रचयिता तपागच्छाधिराज सोम सूरि के पट्ट प्रभावक. युग: प्रधान मुनि सुन्दर सूरि के शिष्य वाचनाचार्य सोममण्डन गणी थे। प्राचीन काल से ही भारत के साहित्य प्रेमियों ने कथा प्रणाली का बहुत आदर किया है। इसका मुख्य कारण यह है कि इस कथा प्रणाली द्वारा उपदिष्ट विषय सरल और मनोहर होने से 'भाबाल-वृद्ध सब को रुचिकर होते हैं। इस पुस्तक के निर्माता में भी उसी का अनुसरण करके बड़ा लोकोपकार किया है। इस पुस्तक / में लेखक ने सरल और सुन्दर 2 दृष्टान्त देकर दान, शील, तप और भाचं रूप से विभक्त धमें को समझाने की बहुत कोशिश की - है और उसमें सफल हुए हैं / Aair!! ... : यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि धर्म ही इह लौकिक और पारलौकिक सुख का प्रधान कारण है। परन्तु उसके भेद जाने बिना व उसका सम्यक रूप से चिरणं किये बिना धर्म का कुछ भी फल नहीं मिलता। इसी कारण से मूल लेखक ने धर्म के. दान, शील, तप और भाव इस प्रकार चार भेद करके और उनमें "मैं बड़ा हूं मैं बड़ा हूं' ऐसा विवाद दिखला कर यह निर्णय किया है कि ये दानादि धर्म सापेक्ष हैं अर्थात् साथ 2 ही व्यवहार में लाये जाते हैं; पृथक नहीं। सापेक्ष होने के कारण ही नय कहलाते हैं। यदि उनमें सापेक्षता न हो तो ये कुनय कहे जा सकते हैं। इन चारों में दान का प्रभाव सर्व श्रेष्ठ है। क्योंकि दानी के द्वार पर बड़े 2 निस्पही "जो कंचन कामिनी और राज्य के सुख की भी इच्छा मही P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ रखते" ऐसे महात्मा लोग आकर हाथ फैलाते हैं। इस सुपात्र दान का जो फल है, उसे बुद्धिमान् लोग जानते हैं तथा शास्त्रगम्य है। - इस पुस्तक में दान के माहात्म्य पर रत्नपाल नृप की कथा शब्दबद्ध की गई है। पूर्वभव में उसने साधुओं को भाव पूर्वक प्राशुक तंदुल जल का दान दिया था। उसके प्रभाव से इस भव में समृद्धिशाली राज्य की प्राति हुई। शील के विषय में सिद्धदत्त और धनदत्त की कथा है। धनी सिद्धदत्त का शील के अज्ञान के कारण जो ह्रास हुआ और ज्ञानवान् शील सम्पन्न धनदत्त शीलता के प्रभाव से उन्नति के शिखर पर पहुंचा। उसका वर्णन बड़ी खूबी के साथ किया गया है। साथ में तप का भी वर्णन है, जिसके प्रभाव से ही देवी ने प्रसन्न होकर वरदान दिये थे। इसके सिवाय अन्य भी कई महत्वपूर्ण उपदेश हैं कि मनुष्य को अपने सुदिन और कुदिन की परीक्षा करके कार्य करना चाहिए ताकि हानि न उठानी पड़े। अधिक कंजूसी के विषय में शृङ्गदत्त की सुन्दर कथा लिखकर यह दिखाया है कि लोभी मनुष्य इहलोक और परलोक के सुख को न पाकर अपना जन्म व्यर्थ ही व्यतीत करता है। 5. इस सुन्दर और जीवन को सुधारने वाली पुस्तक का भाषानुवाद करके विद्याप्रेमी सुरेन्द्र मुनि ने लोकोपकार किया है। मुझे विश्वास है कि इस अनुपम पुस्तक का हिन्दी अनुवाद होने से हिन्दी भाषा-भाषी बहुत लाभ उठावेंगे और यह हिन्दी अनुवाद हिन्दी प्रेमियों का जीवन पथप्रदर्शक सिद्ध होगा। विक्रम सं० 2011 आसोज कृष्णा 15 सुन्दरमुनि, दुजाणा का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ -ॐ प्रथम परिच्छेद * (NXXNE यः श्रीसद्मने तस्मैः नमः श्री नाभिजन्मने। यन्नामांपिनृणां दत्ते, कल्पशाखीव वाच्छितम् // .. अर्थः-भुक्ति और मुक्ति के देने वाले उन प्रसिद्ध महामहिम नाभि राजा के पुत्र भगवान ऋषभदेव को नमस्कार हो, बिनका नाम स्मरण भी कल्पवृक्ष की तरह मनुष्यों की वांछित कामनाओं को पूर्ण करता है / दान, शील, तप और भाव इस प्रकार धर्म चार प्रकार से कहा गया है। वह लक्ष्मी का कारण, संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए सेतु के समान महाकष्टों का नाश करने वाला है। चारों में दान श्रेष्ठ है क्योंकि पूर्वकाल में जिनेश्वरों ने भी उन चार प्रकार के धर्म-भेदों में दानादि अन्योन्यवाद की युक्ति से दान को सर्वश्रेष्ठ कहा है। ऐसा जानो, उसकी श्रेष्ठता इस तरह है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * रत्नगल नृप चरित्र एक समय दान, शील, तप और भाव जो मुक्ति के मार्ग हैं वे अपने 2 महात्म्य के घमण्ड से "मैं बड़ा ह" इस प्रकार आपस में विवाद करने लगे-दान बोला-मैं ही मुक्ति का मुख्य कारण हूं, अन्य गील आदि सब सहकारी कारण अर्थात् सहायता करने वाले हैं, ऐसा समझो। मैंने इतनी प्रौढ़ी आरोपित की है कि एक जन्म से ही शालिभद्र माक्ष को प्राप्त हुए, तीनों लोक इस वृतांत को जानते हैं। धनसार्थेश के भव में जो घी का दान साधुयों को दिया उस दान के पुण्य से त्रिलोक के पितामह ऐसे युगाधीश हुए, इक्षग्म को देने वाले अपने पौत्र के हाथ के नीचे अपना हाथ प्रभु ने किया इस कारण से मेरा महात्म्य साफ प्रकट है। जो निस्पृही लोग किसी भी काम में किसी की भी सहायता नहीं चाहते मुक्ति-मार्ग में प्रवृत हुए वे भी दाता की अपेक्षा रखते हैं। बहुत कथन से क्या ? नव निद्धियें और आठ सिद्धियें तथा पुरुषों को उत्तम भोग एवं आरोग्यादि जों प्राप्त होते हैं वे सब मेरे ही प्रभाव से मिलते हैं। , शील बोला-इन मोक्ष के अंगों में युक्तियों द्वारा मेरी ही मुख्यता सिद्ध होती है, अन्य की मुख्यता किसी प्रकार सिद्ध नहीं होती / इस संसार में सेठ सुदर्शन को ऐसे ऐसे अद्भत प्रतिहार्य प्रकट हुए हैं और जो मोक्ष को प्राप्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * प्रथम परिच्छेद - हुया है, उसमें भी मेरे सिवाय दूसरे किसी का प्रभाव नहीं। सीता, सुभद्रादि सतियों ने पहिले जो दुःसाध्यकृत सम्पादन किये, वह सब मेरा ही निष्कलक महात्म्य है। स्वेच्छाचारी सावध कर्म में लगा हुआ, कलह कराने वाला नारद भी शुद्ध मन से मेरी आराधना करके मोक्ष में गया / जिनेश्वर भगवान ने अन्य दानादि के लिए न तो अनुज्ञः दी है, न निषेध किया है, परन्तु संसार बीज जो अब्रह्म है उसका सब स्थानों में निषेध किया है / मरी मुख्यता का कारण यह है कि जितेन्द्रियत्व मेरे द्वारा प्राप्त होता है और उससे विनय, फिर क्रम से विनय द्वारा सब सम्पत्ति प्राप्त होती हैं। इसलिए निश्चय करके मैं शील ही सम्पत्ति का मूल कारण हू / अन्य स्थानों में भी कहा है, कि विनय का कारण जितेन्द्रियपन है, विनय से गुणों की उत्कृष्टता होती है। गुण प्रकर्ष से मनुष्य प्रसन्न होते हैं और मनुष्यों की प्रसन्नता से ही सम्पत्तियें प्राप्त होती हैं। उपरोक्त कारणों : से दूसरों को नहीं प्राप्त होने वाले श्रेष्ठकर्म से विदित है स्वरूप जिसका, ऐसे मेरे शतांश को भी अन्य दानादि धर्म .. पाने योग्य नहीं है, यह निश्चित है। तप कहने लगा-दानादि की गुरुता तब तक है जब तक मेरे देदीप्यमान महात्म्य पर दृष्टि न पड़े। कठिन कार्यों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 4. ] * रत्नपाल नृप चरित्र * को साधन के लिए हरि वासुदेव और चक्रवर्ती जो महा प्रभावशाली हैं, वे भी वांछित सिद्धि को देने वाले मेरी ही सदा सेवा करते हैं। तप से अस्थिर कार्य स्थिर, वक्र भी सीधा, दुर्लभ सुलभ और कठिन भी सरल हो जाते हैं। जैसे अग्नि अनन्त काष्ठ-राशि को क्षण भर में भस्म कर देती है उसी तरह मैं अनेक भवों से संचित दुष्कर्मों को क्षण भर में नष्ट कर देता हूं। अन्य शास्त्रकारों ने भी कहा है:-बाह्य और अभ्यन्तर तपो वहि के देदीप्यमान होने पर संयमा दुर्जर कर्मों को भी क्षण भर में काट देता है। निकाचित कर्मों से अत्मा दो तरह से छूटता है, स्वयं अनुभव 'भोग' करके या मर तप द्वारा भस्म करक। सीमंधर स्वामि ने कहा है:-हे भव्यो ! पूर्व भव में संचित किये हुए जिनका प्रतिकार दुःशक है, ऐसे कर्मों / को भोगकर ही मोक्ष होता है, बिना भोगे नहीं / अथवा तप से उनको नाश करके मोक्ष होता है। ये दो ही "उपाय हैं। फिर सुनोः-निषिद्ध आचरणों से उत्पन्न हुए पापों से मलिन अात्मा गुरु से उपदिष्ट तप से (मेरे से) ही शीव. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * प्रथम पच्छेिद के शुद्ध होता है। इसका अन्वय उदाहरण यह है कि ब्राह्मणहत्या, स्त्रीहत्या, बालहत्या, गोहत्या आदि पापों से नरक' में जाने वाले दृढ़ प्रहारी भी मेरे तप द्वाग मोक्ष को चले गये। श्रेणिक जिसके साथ अनन्तानुबन्धि 'क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्त्व मोहनीय. मिश्र मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय' क्षीण हो गये थे, वह भगवान की आराधना करता हुआ भी मरे 'तप' से विमुत्र होने के कारण नरक में पहुंचा। अन्वय और व्यतिरेक से 'अर्थात् मेरी सेवा करने से मुक्ति, न करने से मुक्ति नहीं। कई बार परीक्षा करने पर भी विद्वान् लोग मुझे दान, शीलादि के माहात्म्य से कम महत्व क्यों देते हैं ? - उस समय भाव दानादि को घमण्डपूर्वक कहने लगामेरे से ही महिमा पाकर मेरे ही सामने गरजते हुए तुमको लज्जा नहीं आती। जैसे जीव के बिना शरीर, पुण्य के / बिना फल, जल के बिना तालाच शोभा नहीं पाते, उसी प्रकार तुम 'दानादि भी मेरे विना शोभा नहीं पा सकते। शास्त्र का प्रमाण सुनो-बहुत धन का दान; संपूर्ण जिन वचनों का अभ्यास किया हुआ चण्ड क्रियाकाण्ड, कई बार पृथ्वी पर सोये, तीव्रतर तपस्या की, चरण का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * रत्नपाल नृप चरित्र दीर्घकाल तक आचरण किया, अगर चित्त में भाव नहीं है तो तुष के बाने के समान सब निष्फन है। मोह से निविड़ पास से बांधकर भव-चक्कर में फेंके हुए भरत चक्रवर्ती को मैंने ही क्षणमात्र में उबारा / ------------- मुख्य मोक्ष के अंग मुझे पाकर ही भगवान को माता मरुदेवी जिसने पहिले धर्म प्राप्त नहीं किया था, तो भी मोक्ष को प्राप्त हुई। कपटी आषाढ़भूति जो ब्रह्मा-मार्ग से भ्रष्ट हो गया था, मैंने अन्य गतियों को रोक कर परमधाम को पहुँचाया। बांस पर बन्दर की तरह कर्म से नाचता हुआ राग से लुब्धचित्त इलातीपुत्र ने मेरी शुद्धि से उज्जवल ज्ञान प्राप्त किया। मनुष्य मात्र मेरी शुद्धि से मोक्ष और मेरी अशुद्धि से बन्ध को प्राप्त होते हैं, इस विषय में प्रसन्न चन्द्रर्षि का स्पष्ट दृष्टांत है। विरत और अविरत दो भाइयों के ऐतिहासिक दृष्टांत से मेरी सब स्थान में प्रमाणिकता सिद्ध होती है, क्रिया की प्रमाणिकता कहीं नहीं है। इस प्रकार दान, शील, तप और भाव ये धर्मभेद अपने अपने महात्म्य से गर्वित हुए आपस में विवाद करते हुए तीर्थङ्कर भगवान के पास पहुंचे। उस समय सब स्थान में समान दृष्टि रखने वाले भगवान् वीतराग प्रभु उनके विवाद P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * प्रथम परिच्छेद * को तोड़ने के लिए स्वोपज्ञ वचन कहने लगे-एक वार में एक एक पर्याय को ग्रहण करने वाली वाणी नय कहलाती है, एक साथ अनेक वस्तु के धर्म को अवलम्बन करने वाली प्रभा कहलाती है। नय अन्योन्य सापेक्ष है इसलिए सर्वज्ञ भगवान ने उनको सुनय कहा है / अन्योन्य एक दूसरे के मत्सर से क्षीण हो गये हैं विषय जिनके, ऐसे नय कुनय कहे जाते हैं। जोगे जोगे जिण सासणम्भि दुक्ख क्खया पउज्जन्तं / इक्कि कम्मि आणन्ता वट्टन्ता केवली जाया // छाया-योगे योगे जिन शासने दुःख क्षयाय प्रयुज्यमाने। ' एकैकस्मिन् अनन्ता प्रवर्तमाना केवलिनो जाता // / जिन शासन में दुख के क्षय के वास्ते प्रयोग किये गये हर एक योग में वर्तमान अनेक केवली हो गये। __.. उपर्युक्त प्रमाण से जिन शासन में तुम प्रत्येक समान भाव से मोक्ष के अङ्ग भाव पाकर इस समय आपस में मत्सर भाव को ग्रहण कर दुर्नय मत होओ। बहुतायत से सत्पात्र में श्रद्धायुक्त दान से, निर्मल शील से, . तीव्र तपस्या से और सदभाव से अनेक लोग मोक्ष को प्राप्त हुए हैं और होंगे / यदि तुम लोग अपना न्यूनाधिकत्व “कौन छोटा है और कौन बड़ो” जानना चाहते हो तो सावधान होकर सुनो, मैं / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 8] रत्नपाल नृप चरित्र * तुमको कहता हूँ, विस्तारपूर्वक समझाता हूँ, जिसकी लीला अति निर्मल और चन्द्र की किरणों के समान देदीप्यमान है ऐसे हे शील ! सुनो, हे निनिदान तप !, हे पाप का नाश करने वाली तीव्र भावने ! तुम्हारी आराधना से निश्चय ही एक प्राणी की मुक्ति होती है, पर दान से देने वाले की और लेने वाले दोनों की मुक्ति स्पष्ट देखी जाती है। = शास्त्रान्तर में भी कहा है: . हे शील ! चन्द्रकर लील ! भवाम्बु राशि, स्तिारणो डुप ! तपः / शृणु भावने ! त्वम् / एकस्य सिद्धिरभवत भवतां प्रसादात् दानान्तु दातु रप रस्य मुक्ति मार्गः // 1 // राग और द्वेष से रहित है मन जिनका ऐसे सर्वज्ञ भगवान के मुखाविन्द से दान की युक्तिपूर्वक श्रेष्ठता सुनकर लजित हुए मात्सर्य को छोड़कर शीलादि तीनों धर्म दान को अपने ऊपर रखकर बहुत आदर करने लगे। 2. इस लोक और परलोक में दान ही संयोग, आरोग्य, सद्भोग, भाग्य, सौभाग्य और सम्पत्ति का कारण है, यह सर्वज्ञ भगवान ने फरमाया है। दान से सब जगह बे रोक टोक कीर्ति फैलती है, दान से मनुष्यों के मुख पर भावी उदय को सूचित करने वाली दीप्ति होती है, पुराने. प्रेम से वशीभूत हुए स्वजन तो दूर रहे, दान से श्रावर्जितः हुए शत्रु . . P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ के प्रथम परिच्छेद * / भी नत मस्तक होकर पानी भरते हैं। दान से प्रतिकूल प्राणी भी वैर भुलाकर वशीभूत हो जाते हैं। प्राच्य दुष्कर्म से उत्पन्न हुए पापों के समूह दुर होते हुए भी दान से क्षीण हो जाते हैं। इसलिए गुण की अपेक्षा न करके सब स्थान में सदा दान देना चाहिए, इस प्रकार सत्पात्र भी कहीं मिल जाय / शास्त्रान्तर में कहा भी है: - सर्वत्र ददतो दातुः पात्रयोगोऽपि सम्भवेत् / .... वपन् क्षाराणवेऽप्यन्दो मुक्तात्मा क्वापि जायते // 11 // एक बार भी सत्पात्र में दिया हुआ शुद्ध श्रद्धा से युक्त थोड़ा भी दान मनुष्यों के अनन्त लाभ के लिए होता है। कहा भी है—'ब्याज में धन दुगुना, व्यापार में चौगुना, कृषि में सौगुना और पात्र में अनन्तगुना होता है।' इतिहास में भी कहा है-'अश्रद्धा से दिया हुआ बहुत दान भी निष्फल होता है।' विद्वान् लोग ऐसा कहते हैं कि श्रद्धा से दिया जल भी अनन्तगुन फलदायक होता है। पात्र और अपात्र का विवेक रखने वाले विवेकी पुरुष को गुण अच्छी तरह पात्र का निश्चय करके श्रद्धा दान करना चाहिए। विवेकियों द्वारा श्रद्धा-दान में कुपात्रों को दान * दिये जाने पर कुपात्रों के दुश्चरित्रों का बढ़ाना होगा। दया-दान तो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 10] * रत्नपाल नृप चरित्र के सब स्थानों में गरीबों को देना चाहिए। क्योंकि सर्वजनहितकारी सर्वज्ञों ने कहीं भी उसका निषेध नहीं किया है। उत्तम क्षेत्र, बीज, वर्षा और पवन से जिस प्रकार उत्तम खेती होती है, इनमें से एक किसी के अलग होने पर या तो खेती मध्यम होती है या निष्फल हो जाती है। उसी तरह उत्तम पात्र, वित्त, भाव और अनुमोदन से दान भी उत्तम होता है, इनमें से किसी एक के अलग होने पर या कम होने पर दान मध्यम या निष्फल हो जाता है। मनुष्यों द्वारा समय पर सत्तात्र में दिया हुया श्रद्धापूर्वक दान स्वाति नक्षत्र में मेघ द्वारा सीपी में गिरा हुआ जल जैसे मोती का रूप पाता है, उसी तरह दान भी सोहता है। उत्तम 2 खाद्य और स्वादिष्ट भोजन तो रहने दो, केवल सत्पात्र में दिया जल भी अभीष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए होता है। भयङ्कर गर्मी की ऋतु में तृषा से पीड़ित साधुओं को दिया हुआ जल-दान भी रत्नपाल राजा को अद्भुत सम्पत्ति का देने वाला हुआ, जिसका वर्णन आगे किसी परिच्छेद में होगा। विद्याप्रेमी सुरेन्द्र मुनिकृते रत्नपाल नृप चरित्रे भाषानुवादे दानादि सम्वादो नाम प्रथमः परिच्छेदः। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ द्वितीय परिच्छेद Tara OwnORS स भरत क्षेत्र में पाडलिपुत्रक नामक प्रसिद्ध नगर है, वह नगर इन्द्र के नगर की स्पर्धा करने वाला, * बहुत समृद्धिमान् है, जहां पर लक्ष्मी और सरस्वती अपना सहज और प्रसिद्ध वैर छौड़कर आपस में प्रीति से पुरवासियों में खेलती थीं। उस नगरी में सूर्य के समान तेजस्वी, शत्रुओं को सिंह की तरह भयभीत करने वाला, राजा के छियानवें (96) गुणों से युक्त राजा पाल स्नेह दृष्टि से समस्त प्रजा को पुत्रवत् देखता हा राज्य करता था।" इसका पुत्र कीर्तिकेय के समान अद्भुत पराक्रमी, कुलरूपी गगनाङ्गण में सूर्य सदृश रत्नपाल नामक हुआ। बहोत्तर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 12 ] रत्नपाल नप चरित्र * (72) कला का विज्ञानशाली वह कुमार कामक्रीड़ा के वन सदृश युवतियों को प्रीति देने वाले यौवन को प्राप्त हुआ। एक बार वीरसेन राजा की शृंगारसुन्दरी नामक कन्या के स्वयंवरमण्डप में रूप सौभाग्यशाली वह कुमार दूत द्वारा बुलाये जाने पर पिता की आज्ञा लेकर हसपुर गया। उस स्वयम्बरमण्डप में अन्य भी हजारों प्रतापशाली उत्साही राजा लोग अपनी सेना से युक्त दूत द्वारा बुलाये हुए आये थे। . शुभ दिन में अलङ्कारों से सजे हुए परिषदा के साथ बड़ी समृद्धि से वे समस्त राजा लोग आकर ऊंचे 2 सजे हुए मंचों पर बैठ गये। उस समय उस स्वयम्बरमण्डप में अद्भुत शृंगार की हुई, चौसठ (64) कलाओं में निपुण, सर्वाङ्ग में शुभ लक्षणों से युक्त हाथ में स्वयम्बर माला ली हुई, सखियों से घिरी हुई मूर्तिमतो, तीनों लोकों को जीतने वाली कामदेव की शक्तिस्वरूप शृंगारसुन्दरी आई। तदनंतर चतुर वक्ता प्रतिहारी ने उसके आगे आकर नाम और वंश के वर्णन के साथ समस्त राजाओं का परिचयपूर्वक वर्णन करना शुरू कियाः. हे सुभ्र ! ये पराक्रमी काशी के राजा शूरसेन हैं जो गंगापुर में हंस की तरह स्वच्छन्द खेलता है, सुना जाता है P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * द्वितीय परिच्छेद के [13 कि काशी निवासी ठगने में बड़े चतुर होते हैं। इस बात को सुनते ही वह कन्या काशीराज से विरक्त हो गई। mmmmmm आगे चलकर प्रतिहार ने कन्या से कहा-ये बलशाली मधूपध्नपति मधु के समान मधुर वाणी बाले हैं। हे कन्ये ! इसे वरण करलो। कालियनाग के विष से ही मानो यमुना का जल नील है, वृन्दावन जिसका क्रीड़ा-स्थान है, उसके विषय में विशेष क्या कहा जाय ? इस प्रकार उपहासयुक्त वाणी से उस मधूपघ्न राजा के जान लेने पर और उसमें अरुचि हाने पर प्रतिहार फिर कोंकण देश के राजा का वर्णन यों करने लगा-"बलवानों की सीमा सय बल नामक ये महीपति हैं, यह प्रसिद्ध है कि इसके भय से इन्द्र आज भी समुद्र में छुपे हुए पर्वतों के पंख को नहीं काटता। तब वह कन्या बोली कि वहां के मनुष्य निष्कारण ही क्रोध करने वाले हैं, इसलिए पद 2 पर रुष्ट हुए इसको मनाने में मैं समर्थ नहीं हूँ। शास्त्रकार ने कहा है या काम अकाण्ड कोपिनो भर्तुरन्यासक्तेश्व योषितः / प्रसत्तिश्वेतसःकर्तुः शक्रेणाऽपि न शक्यते // 1 // अर्थात्-निष्कारण क्रोध करने वाले स्वामी का, - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 14 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * अन्य में आसक्त स्त्री के मन की प्रसन्नता इन्द्र भी नहीं कर सकता तो दूसरों से कैसे सम्भव है ? * .. तदनन्तर प्रतिहार भुजबल, धैर्य आदि गुणों से युक्त गौड़, मालव आदि आठ देशों के राजाओं की विभूति का वर्णन करने लगा। उस समय समस्त गुण भूषित वर को चाहने वाली कन्या ने 'देश सामान्य दोष' से जैसे गौड़ देश के लोग कार्य में चतुर और बहुभोजी होते हैं, मालवे के मनुष्य दुष्ट, खस देश के लोग दुःस्वार्थ में तत्पर, महाराष्ट्र के लोग धूर्त और जड़ बुद्धि होते हैं, लाट देश के निवासी केवल वाक्प्रपंच में चतुर, कर्नाटक के वास्तव्य क्रूर और गुजराती अन्तहृदय में गूढ़ हैं, कथन से उत्तर दिया। इस वह पतिम्वरा जिस 2 राजा को उलांघती थी, उसका मुख राहुग्रस्त चन्द्रमा की सदृश श्याम हो जाता था। अन्य स्थल में भी कहा हैसंचारिणी दीप शिखेव रात्री य यं व्यतीयाम पतिवरासा। नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्ण भावं स स भूमिपालः // 1 // तदनन्तर प्रतिहार अमृताञ्जन को देखते ही बोलायह कीर्तिकेय के समान बलवान् रत्नपाल कुमार है, विनयपाल P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * द्वितीय पच्छेिद * नामक राजा का शत्रुओं को तपाने वाला पुत्र है। इस प्रसिद्ध सौभाग्यशाली को वरण करके अपने जीवन को सफल करो। उस समय कामदेव के समान उस राजकुमार को देखकर शृंगारसुन्दरी मेघ को देखकर जिस तरह मयूरी प्रसन्न होती है उसी तरह विकसित नेत्र वाली हृदय में प्रसन्न हुई। अन्य राजाओं के पास भ्रमण करने से अत्यन्त थकावट को प्राप्त हुई उसकी दृष्टि सर्वगुणसम्पन्न उस कुमार में विश्राम को प्राप्त हुई। सब राजाओं के देखते 2 पूर्वभव के स्नेह से उस श्रृंगारसुन्दरी ने कुमार रत्नपाल के गले में वरमाला डाल दी। " उस समय अन्य राजाओं ने विचारा कि इतने कुलशील आदि से शोभायमान राजाओं के रहते अगर इसने विवाह कर लिया तो हमारे लिए दूध पिलाने वाली माता का खेल होगा और हमारा पानी उतर जायगा। ऐसा विचार कर सब राजा लोग एकत्रित हो गये, क्योंकि समान व्यसन में ही मित्रता होती है। वीरसेन राजा उन राजाओं को विकारयुक्त देखकर अपनी सेना के साथ जामाता की रक्षा के लिए सावधान स्थिर रहा। उसी समय निर्विचार हृदय वाले राजा लोग जिनमें मात्सर्य उमड़ रहा था और जो अपनी बुद्धि गंवा बैठे थे, विचारशाली वीरसेन नरेश को चारों तरफ से घेर कर कहने लगे- "हे राजन् ! गुणरूपी रत्नों की P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun, Gun Aaradhak Trust
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________________ * रत्नपाल नृप चरित्र खान के तुल्य इस कन्या को इससे छीनकर हमारे में से किसी को दे दो। जिस प्रकार गधे को मणिमाला शोभित नहीं कर सकती, उसी प्रकार इस शृंगारसुन्दरी को इस बातक को देना हम बरदास्त नहीं कर सकते / " तब बीरसेन ने कहा कि-हे महानुभावों ! स्वयम्वरमण्डप में बहुत से राजा लोग बड़े 2 मनोरथ लेकर आते हैं, परन्तु उनमें से एक ही अपने पूर्वभव के पुण्य से कन्या को विवाहता है। शेष लोग तो अरुष्ट असन्तुष्ट मन वाले जैसे आये वैसे ही चले जाते हैं। इस सर्वसिद्ध व्यवहार को जानने वाले आप लोगों को रोष तोष नहीं करना चाहिए। फिर यह कार्य तो भाग्य के अधीन हुआ करता है। किसी विद्वान् म ठीक कहा है- . ___ अवाक् दृष्टितया लोको यथेच्छं वाञ्छते प्रियम् / . भाग्यापेक्षी विधिदत्ते तेन चिन्तित मन्य था // 1 // .. इस प्रकार वीरसेन राजा के कहने के बाद राजकुमार रत्नपाल कहने लगा-हे राजाओं ! मेरे कन्या के वरण करने पर क्रोध नहीं करना चाहिए, किन्तु दौर्भाग्य देने वाले अपने भाग्य पर क्रोध करो। यह सुनकर विशेष स्फुरायमान क्रोध वाले सब राजा लोग तत्काल कन्या के वर को मारने के लिए सजित हुए। उस समय विषादग्रस्त राजा वीरसेन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * द्वितीय परिच्छेद * है। न में विचार करने लगा कि शांति करते हुए यह कैसा . तालोदय हुआ, यह हर्ष के समय विषाद, भोजन के समय छींक, इस मंगलमय समय में यह भयानक रणागम त्यों पैदा हुआ ? : मालूम होता है कि यह लड़की कुनक्षत्र में उत्पन्न हुई है, इसलिए इस समय काल रात्रि की तरह सुभट श्रेणी का संहार करने के लिए पृथ्वी पर अवतीर्ण हुई / है। उस समय विचक्षण बुद्धि वाली कन्या ने वहां आकर अपने निमित्त काल प्रलय को होता हुआ देखकर अपने पूर्वव के कर्मों की निन्दा करती हुई मन में विचार करके प्रपने भाव को एकान्त में चतुरबुद्धि नामक मन्त्री से कहा प्रौर फिर हाथ उठाकर दूर से भयानक युद्ध को निवृत्त रती हुई क्रोध से युद्ध में सज्जित हुए संब राजाओं को स्पष्टः णी से कहाः—हे भूपालो ! मेरे लिए युद्ध करना ‘पर्वत - को खोद कर मूषक को निकालने' के समान है। यह आप गोगों के लिए योग्य नहीं है। खेद के साथः कहना पड़ता. है कि हठ से भरे हुए, दूसरों के तेज को न सहन करने गले शूरवीर लोग राष्ट्र, कोष और सेना का वचन मात्र से [य कर देते हैं। अब आप लोग कलह को छोड़कर सुनो। तो मेरे साथ विवाह करना चाहता हो और सत्वाट्य यानि हसी हो वह. 'मेरे साथ काष्ठ का भक्षण करे यानि जल [ाय / ' ऐसी कन्या की वाणी को सुनकर सब राजा लोग P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ____18 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * युद्ध से निवृत्त हुए और विस्मित होकर आपस में विचार करने लगे—कौन मृत पुरुष बड़े 2 पर्यों में कभी शामिल हो सकता है अर्थात् नहीं। जीवित मनुष्य ही इस संसार में सैंकड़ों सुख, उपभोग प्राप्त करता है। आज हम लोगों को हमारे पुण्य प्रभाव से सर्वाङ्गीण सुख प्राप्त है, केवल स्त्री के लिए मरने पर आत्म हानि और मनुष्यों में हँसी होती है, इस लिए हमको मरने से कुछ लाभ नहीं। जीवन से बढ़कर हमको कोई नजर नहीं आता। यह बालक स्त्री के लिए मरता हुआ काल के मुख में पहुँचेगा। ___तदनन्तर वह कन्या रत्नपाल को संकेत करके उपवास करती हुई तीन दिन तक नदी की तीर पर रही, तब तक मन्त्री ने बड़े 2 काष्ठों से महा चिता बनाकर उसके नीचे अपने सेवकों से एकान्त में सुरंग खुदवादी। तदनन्तर स्नान करके रत्नपाल और कन्या दीनों को / दान देकर उन राजाओं के देखते देखते चिता पर चढ़। गये। उस समय पुरवासियों के हाहाकार करते हुए भी. पास रहे हुए राजपुरुषों ने उस चिता में आग लगादी / पूर्वोक्त सुरंग द्वारा कन्या और वरं दोनों निकल कर राजा के / महल में एकान्त में जा पहुँचे / वीरसेन भी चिता को जला: कर अपने महल में गया। विषाद और विस्मय से व्याप्त / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * द्वितीय परिच्छेद * [ 16 पुरवासी भी अपने 2 घरों में चले गये / “हमारे हठ से यह कन्या और बालक वर दोनों मर गये” इस प्रकार दयाचित्त पश्चाताप करते हुए अन्य राजा लोग भी अपने अपने नगर को चले गये। . दूसरे दिन एकान्त में नदी के तीर पर सुन्दर वस्त्राभरण भेजकर कुमार और कन्या को अलंकृत करके अनेक प्रकार के वाद्यों से दिशाओं को गुंजाता हुआ, परिवार सहित राजा ने वहां आकर पट्ट हस्ती पर उन दोनों को बैठाकर छत्र और चामर से विभूषित करके दीनों को यथेच्छ दान से ऋण रहित करते हुए प्रसन्न चित्त से पुर में प्रवेश कराया। ___ तदनन्तर राजसभा में अपनी गोदी में उस कुमार को विठाकर सभाषदों को सुनाता हुआ नृप उससे पूछने लगाहे वत्स ! अग्नि में प्रवेश करके भी तुम कैसे जीवित रहे और तुमको यह दिव्य अलंकार आदि कैसे प्राप्त हुए ? तब कुमार कहने लगा कि हे राजन् ! शील और सत्व वाले प्राणी को दाहात्मा भी अग्नि कभी नहीं जला सकती, मेरे असीम सत्व और अतीव निर्मल शील को देखकर स्त्री सहित इन्द्र देवता , प्रसन्न हुए। तदनन्तर ज्वालाओं से भयंकर उस अग्नि में से . हमको. निकाल कर देवताओं द्वारा स्वर्गलोक को पहंचाया, .. इससे उनकी गुणी वत्सलता सिद्ध होती है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ .20 ] . * रत्नपाल नृप चरित्र * - उस स्वर्गलोक में ऐसे देवता लोग जिनको सर्वाङ्ग सुख की सम्पत्ति इच्छा से प्राप्त है, अल्प. पुण्य वालों से दुष्प्राप्य सत्कर्म को भोगते हैं। इस संसार में जो राजा लोग सब प्रकार के सुखों के भोगों को भोगते हैं, वे सुख भोग स्वर्ग के सबसे हीन ऋद्धि वाले के सुख का शतांश भी नहीं पा सकते। उस समय हमने सव द्रष्टव्यों की अवधि भूत स्वर्ग को देखकर स्रष्टा के दृष्टि सृष्टि के परिश्रम को सफल माना / हे राजन् ! इस प्रकार की महद्धि से प्रसन्न हुए देवता लोग भी नवीन पुण्य के अर्जन की इच्छा से मनुष्यभव को चाहते हैं। - स्थानांग सूत्र में भी कहा है:- ... त्रिभ्यःस्थानेभ्यः देवा अपि स्पृहयेयुः। 5 साल मानुष्यकंभवं 1 आर्य क्षेत्रे जन्म 2 सुकुल प्रत्ययिकी जातिम् // की . अर्थात्-देवता तीन इच्छा करते हैं-(१) मनुष्यभव की, आर्यक्षेत्र में जन्म की और अच्छी जाति की। . . * - तदनन्तर इन्द्र महाराज ने वरदान दिया कि हे. वत्स !:: नष्कंटक इस पृथ्वी के राज्य को प्राप्त करो। और सब -गों के अलंकार भी दिये / हे वत्से ! तू शुद्ध शील वाली, अतः अखंड सौभाग्य को सदा प्राप्त हो / ऐसे आशीर्वाद से.. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ** द्वितीय परिच्छेद के इन्द्राणी ने प्रसन्न होकर इस कन्या को भी सब आभूषण दिये / “पहिले अपनी सन्तान के विरह से उत्पन्न हुए दुःख . को नहीं जानने वाले तुम्हारे माता पिता इस समय तुम्हारे वियोग से पैदा हुए दुख को न देखें।" इस विचार से अन्य के दुःख से दुखी होकर हम दोनों को इस वक्त शीघ्र मृत्य लोक में भेजा है। कर्ण परम्परा से सर्वत्र फैलने वाली इस बात को विरोधी राजा लोगों ने सुनकर बड़ा आश्चर्य किया और सत्वहीनता से अपने को उन फलों से वंचित मानते हुए विषादयुक्त होकर दुर्दैव की निन्दा करने लगे। ___ इस प्रकार पाणिग्रहण के उपद्रव के विलय होजाने पर वीरसेन राजा ने प्रसन्न होकर अच्छे लग्न में रूप, सौभाग्य और लावण्य से मूर्तिमान् कामदेव के समान राजकुमार के साथ अपनी पुत्री का विवाह धूमधाम से कर दिया। सज्जनों द्वारा किये गये अथिति सत्कार से आदर पाते हुए रत्नपाल ने कुछ काल तक ससुरधर में निवास किया। बड़े लोगों को महातीर्थ की तरह ससुराल में बहुत दिन तक नहीं रहना चाहिए क्योंकि महत्व और मान की हानि होती है। ' अन्यत्र किसा विद्वान् न कहा ह अन्यत्र किसी विद्वान् ने कहा है: . चिरं पितृगृहे स्त्रीणां नराणां श्वसुरो कसि / : : वास श्चै कत्र यमिनां नूनं हास्यास्पदं जने // 1 // III P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 22] * रत्नपाल नृप चरित्र * अर्थ-स्त्री का चिरकाल तक पिता के घर रहना, मनुष्यों का ससुराल में बहुत समय तक रहना, यमियों का एक स्थान पर बहुत समय तक रहना, लोक में हास्यास्पद है। वह राजकुमार उपरोक्त. शिक्षा के सब मर्म को जानता हुया, पिता के घर को जाने की इच्छा रखने वाला है तो भी श्वसुर के आग्रह स वहा रहा। ...... हाथी-घोड़े, .मणि-मुक्ता आदि से राजा ने राजकुमार रत्नपाल का आदर किया। तदनन्तर सेना सहित कुमार शृंगारसुन्दरी को लेकर अपने नगर को रवाना हो गया। विवाह करके आये हुए अपने पुत्र को प्रसन्न हुए राजा ने बड़े धूमधाम से नगर में प्रवेश कराया। तदनन्तर राजा ने अपने पुत्र को तेजस्वी और महोत्साही जानकर मन्त्री और सामन्तों की साक्षीपूर्वक राजसिंहासन पर बिठा दिया। फिर स्नेह से ‘परिणाम में हितकारक शिक्षा दी कि-दुष्टों को दण्ड देना और साधुओं का पालन करना / कहा भी हैदुष्टस्य दण्डः सुजनस्य पूजा न्यायेन कोषस्य च सम्प्रवद्धिः / अपक्षपातो रिपुराष्ट्ररक्षा, पंचैव यज्ञा कथिता नृपाणाम् // अर्थात् दुष्ट को दण्ड देना, सज्जन पुरुषों का मान और पूजा करना, न्यायपूर्वक कोष की वृद्धि करना, पक्षपात न करना, शत्रुओं से राज्य की रक्षा करना, ये पांच ही राजा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ द्वितीय पच्छेिद [23 के यज्ञ कहे जाते हैं। जो अविश्वास्य हो राजा उसका धन हरण करके उसे अपने देश से निकाल दे। जो विश्वास के योग्य हो उसको बड़ी उन्नति पर चढ़ाना चाहिए / राज्य के लोभ से पुत्र, मित्र, पिता और भाई भी आपस में लड़कर मर जाते हैं, जिसके साथ जमीन और खण्डनी का विरोध हुआ हो उसका विश्वास न करना चाहिए। मित्र तीन प्रकार के होते हैं—(१) धर्म मित्र, (2) पर्व मित्र और . (3) नित्य मित्र / इन तीनों में से 'धर्म मित्र' के विश्वास में रहने से 'धर्म मित्र' कभी विश्वासघात नहीं करता और 'पर्व मित्र' एवं 'नित्य मित्र' इन दोनों का विश्वास करने से दगा होता है / हे वत्स ! इस तथ्य को जानता हुआ तू 'धर्म मित्र' को छोड़कर किसी का भी विश्वास मत करना / ऐसा उपदेश अपने पुत्र को देकर वैराग्ययुक्त उस राजा ने चैत्य में अष्टाहि का महोत्सव करके दीनों को दान देकर जिनेश्वर भगवान् की / कही हुई सर्व विरति रूप चारित्य दीक्षा अंगीकार करली। स्वाध्याय के पठन का उद्योग करने वाले उसने कठिन तप करके शुभ ध्यान रहकर अपनी आयुष्य को पूर्ण कर देवलोक के सुख भोगने के लिए स्वर्ग को पाया। तदनन्तर प्रजा का पालन करते हुए महाप्रतापी रत्नपाल महीपाल ने स्वयंवर में प्राप्त हुई अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह किया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * रत्नपाल नृप चरित्र इस प्रकार रूप सौभाग्य और 'लावण्य से विभूषित : शृंगारसुन्दरी आदि सहस्र स्त्रियें क्रमसे उसके हुई। - उसके बाद नीतिज्ञ होते हुए भी उसने जैसे कोई दूध , को विलाव के अधीन करे, उसी तरह जय नामक महामन्त्री " को राज्यभार सौंप दिया और आप नित्य अन्तःपुर में निवास करता हुआ सुख समुद्र में खेलते हुए पांच प्रकार के कामसुख। को भोगने लगा। .. इधर मन्त्री ने विचार किया कि हाथ में आये हुए इस राज्य को अपना बनाकर और इस राजा को मारकर मैं ही राजा बन जाऊ। यह विचार कर उस दिन से दान. सम्मान आदि से सारी सेना को अपने वश में करली, फिर किसी सिद्ध पुरुष से प्राप्त हुई सिद्ध विद्या से राजा को अव- 1 स्वापिनी निद्रा दे दी। उससे अचेतन हुए राजा को पलंग सहित ही अपने विश्वासी पुरुषों द्वारा उठवाकर दूर जंगल में / छोड दिया। रत्नपाल के पूर्वभव के पुण्य के प्रताप से उस दुराचारी मन्त्री की इच्छा उसको जान से मारने की नहीं हुई। .. .. . इधर असाधारण राज्यलक्ष्मी को पाकर उस मदोन्मत्त ... = पापी जय मन्त्री ने एक महासती शृंगारसुन्दरी को छोडकर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ __ * द्वितीय परिछेद 20-25514 25 नृप रत्नपाल के समस्त अन्तःपुर के शील का विप्लव कर दिया। वह वर्म-चाण्डाल हमेशा खुशामद पूर्वक शृंगारसुन्दरी से : प्रार्थना किया करता था, परन्तु शुद्ध वंश में उत्पन्न दृढ़ सत्व "मनोबल' वाली सती ने उसके मधुर वचनों को नहीं माना। तब उस रागान्ध ने मर्यादा छोड़कर प्रतिदिन पांच . सौ चाबुक से सती को पीड़ा देना शुरू किया। शिरीष के पुष्प के सदृश कोमल अंग वाली उस महासती को जलते हुए संदंश (लोह की संडाशी) से वह दुष्ट बार. बार तोडता था। इस प्रकार हठ में चढ़े हुए उस जयामात्य ने अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अनेक प्रकार की कदर्थना एक मास तक . पहुंचाई, परन्तु प्राणों से भी अधिक शील को मानती हुई मन से भी वह थोड़ो भी शुभ मार्ग से विचलित नहीं हुई। दुराचारी मन्त्री के एक प्रिय पर विवेकवान् और विचारशील मित्र ने उसके उन कर्मों के बुरे नतीजों को विचारते हुए : उसके हित के लिए उपदेश देना आरंभ किया हे महीपते ! : महा सतीयें अपने शुद्ध शाल के प्रभाव से समुद्र को भी थल ' . बना देती हैं और थल को समुद्रः बना देती हैं। अग्नि को .: जल, जल को अग्नि, पर्वत को वल्मीक, वल्मीक को पर्वत . बना देती हैं। राक्षस, . यक्ष, सर्प, व्याघ्र और दुष्टों का दमन करती हैं तथा आते हुए स्वचक्र और परचक्र का स्तंभन - कर देती हैं। यदि ये महासतिये कुपित हो जाय तो शाप भाचार्य श्री कैलास सागर परि ज्ञान मन्दिा श्री महावीर जैम आराधना केन्द्र P.P. Ac. GO पाया, जि. गांधीनगर, पीन-३८२०७ 6ak Trust
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________________ , 26 ] . * रत्नपाल नृप चरित्र * देकर बड़े 2 राजाओं को पुत्र और भाई के साथ शीघ्र ही भस्म कर देती हैं। इस सती प्रभाव के विषय में मैं एक दृष्टान्त कहता हूं, उसे आप सुनो। .. किसी समय रत्नपुर नामक नगर में सार्थेश धनसार के धनश्री नामक प्राणप्रिया थी। एक दिन वह रूपवती, सौभाग्यशालिनी झरोखे में बैठी हुई थी। किसी दुराशय विद्याधर नरेन्द्र ने उसको देख लिया और रागान्ध होकर उससे प्रार्थना की, - परन्तु उसकी सैंकड़ों खुशामद से भी वह सती नहीं मानी। तब कामदेवरूपी स्मरापस्मार' से मोहित मन वाले उस विद्याधर ने उसके शील को नष्ट करने के वास्ते विद्याबल से प्रयत्न : किया। तव क्रोधित होकर उसने शाप दिया-'हे पापी ! तू पुत्र और सात अंग वाले राज्य के साथ क्षय को प्राप्त हो।' तदनन्तर विद्याधर बोला कि इस समय दिन है, मैं रात्रि में आकर तुझे. हरण करूगा, फिर जो भावी होगी सो होओ। तब उस सती ने कहा कि आज मेरे कथन से ही सूर्य अस्त. होगा अन्यथा नहीं। यह सुनकर वह दुष्टाभिप्राय विद्याधर जब अपने नगर में गया, तब उसका पुत्र अकस्मात् हृदयशूल से पीड़ित होकर मर गया और हाथी घोड़े भी मर गये, शेष रहे हुए 1. बाण P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * द्वितीय परिच्छेद * . [ 27. इधर उधर भाग गये, धन धान्य, मणि-मुक्ता, स्वर्ण रुप्यादि = वस्तुओं से परिपूर्ण उसका घर शीघ्र जल गया, फिर अचानक / चतुरंग सेना सहित उसके शत्रुओं ने आकर उसके देश, दुर्ग आदि बलात्कार से जीत लिए / इस प्रकार तीन दिन की अवधि के अन्दर 2 वह विद्याधर नरेन्द्र मनुष्यमात्र रह गया और दुखी होकर कहने लगा कि हाय ! मेरे पर दुख के ऊपर दुःख के पहाड़ क्यों टूट रहे हैं, ऐसा क्यों हो रहा है ? ये नये 2 / दुःख क्यों आरहे हैं। इस प्रकार विषाद और विस्मय से जब वह विचार करता है, उस समय एक विद्याधर ने आकर कहा कि हे स्वामिन् ! नन्दीश्वर द्वीप से प्राते हुए मैंने एक बड़ा आश्चर्य देखा कि 'रत्नपुर में तीन दिन से सूर्य अस्त नहीं होता,' इसलिए वहां के महाराज नरपति शान्तिककर्म कराते हैं। उसके वचन को सुनकर मन में चकित हुए विद्याधर ने सोचा कि यह सब आश्चर्य परम्परा उसी सती के वचन से हुई। हाय ! मुझ दुष्ट ने उस महासती को कुपित करके सव विपरीत कर दिया। - अब उस नगर में जाकर उस महासती से क्षमा मांगं, नहीं तो उसका शाप अब भी वज्र और अग्नि के समान दुःसह होगा / इस प्रकार पश्चाताप से तृप्त हृदय वाला वह विद्याधरेन्द्र उस नगरी में गया और अपने दुराचरण को प्रकट करता P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 28 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * हुआ उसके पैरों में पड़कर नृप और पुरवासी लोगों के सामने क्षमा मांगी। तदनन्तर सती के कहने पर सूर्य अपने समय पर अस्त हुया, उसके अनुनय विनय से वह नभश्चर शाप से / मुक्त हुआ और अपने शत्रुओं को क्रमसे जीत कर फिर राज्य लक्ष्मी को प्राप्त हुआ / इस प्रकार हे राजन् ! कुशल चाहने - वाले चतुर पुरुष महाप्रभावशाली सतियों की आराधना करते हैं, कभी विराधना नहीं करते। जयं भूपति ने अपने मित्र की पूर्वोक्त शिक्षा को सुनकर शृंगारसुन्दरी की ओर से अपने चित्त को शान्त किया और उसको दुःख देना बन्द कर दिया। अब ऐसी विडम्बना को पाकर और उस विडम्बना से मुक्त हुई शृंगारसुन्दरी ने हमेशा आचाम्लादि' तप करना शुरू किया / शरीर की भी परवाह न करके वह शृंगारसुन्दरी बीच 2 में पक्ष मास उपवास से भी तीव्र तपस्या करती थी। स्नान, अक्षराग संस्कार अच्छे वस्त्र अलंकार को सदा वर्जन करती हुई जिन-पूजा में : सदा तत्पर रहती थी। पृथ्वी पर शयन करती थी। पति के - वियोग को और राज्यलक्ष्मी के नाश को "जो अत्यन्त दुःसह. है" याद करती हुई वह सती मरना चाहती थी। परन्तु किसी. ज्योतिर्विद ने कहा था कि तेरा पति तुझे मिलेगा और 1. आवम्बिल P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * द्वितीय परिच्छेद *: [26 राज्य भी फिर मिलेंगा, इस बचन के विश्वास से वह किसी प्रकार जीवित रही। . नि .. राजमहल में तो ये घटनायें घटित हो रही थीं और दूसरी तरफ जब राजा रत्नपाल की निद्रा भंग हुई तब उसने ... अपने को घने जंगल में पाया। मनुष्य के प्रचार से रहित अनेक हिंसक जानवरों से पूर्ण उस वन को देखकर मन में सोचने लगा-क्या मैं यह स्वप्न देख रहा हूं अथवा यह इन्द्रजाल है या मेरा बुद्धि विपर्यय हो गया ? जो अनेक प्रकार मांगलिक वाद्य और वन्दीजनों के मनोहर स्वर सेशोभित सब इन्द्रियों को सुख देने वाला देवलोक के गृह के सदृश मेरा राज प्रासाद कहां है और अनेक काक, उल्लू, भालू आदि हिंसक प्राणियों के भयंकर शब्दों के कोलाहल से व्याप्त यमराज के स्थान की भांति भयंकर यह स्थान कौन सा है ? ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य के लोभ से दुरात्मा मन्त्री ने विश्वस्त मुझे इस दुःखरूपी समुद्र में पटका है। सोते हुए के उत्संग में चढ़कर आज हाय ! उसने मेरा गला मरोड़ दिया / अथवा महान् खड्ड में डालकर मेरी रस्सी काट दी। हाय ! वंश परंपरा से आये हुए मेरे भक्त, दान और मान से सत्कृत ऐसे राज्य के प्रधान पुरुषों को उसने अपने कैसे बना लिये ? अथवा मुंहमांगे धन से प्रसन्न किये हुए मेरी ,P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ .30 ] .. ॐ रनपाल नृप चरित्र * . अंगरक्षा में नियुक्त सेवक कैसे मेरे खिलाफ हो गए ? संसार का यह नियम ही है कि जो लोग संपन्न होते हैं, उनके अनुगामी सब लोग हो जाते हैं, वही मनुष्य जब विपत्ति में होता है, तब संबन्धी भी पराये और प्रिय शत्रु बन जाते हैं। किसी ने कहा है:संपदि परोऽपिनिजतां निजोऽपि परता मुपैति विपदिजनः / . ताराभि ब्रियते निशि रश्मिभि रपि मुच्यतेऽहि शशी // 1 // .. .. अर्थात-संपत्ति में शत्रु भी अपना बन जाता है और विपत्ति में अपना मनुष्य भी शत्रु बन जाता है। चन्द्रमा रात्रि में ताराओं से घिर जाता है और दिन में वही अपनी . किरणों से रहित हो जाता है। भाग्य भ्रष्ट मनुष्य के भक्त अनुचर क्या कर सकते हैं ? जैसे अन्धे के लिए सूर्य की ज्योति क्या कर सकती है ? पूर्वभव के कर्मानुसार मनुष्य को ... सम्पत्ति या विपत्ति प्राप्त होती है / किसी विद्वान् ने कहा है:सुखस्य दुःखस्य न कोऽपिदाता, परो ददाःतीति कुबुद्धि रेषा पुराकृतं कर्म तदेव भुज्यते, वंजीव हे ! निस्तर यत्त्वयाकृतं // अर्थात्-सुख दुख का देने वाला कोई नहीं है, दूसरे के द्वारा दुःख मिला यह सोचना कुबुद्धि है / जो कर्म P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ द्वितीय परिच्छेद * . [31 पहिले किये गए हैं वे ही भोगे जाते हैं, हे जीव ! जो तूने किया है उसे भोग / यह विचार कर अपने दिल में धैर्य धारण किया कि इस समय भाग्यहीनता से प्राप्त हुई इस दुर्दशा को भोग लूं / पीछे कर्म के अनुकूल होने पर सब मेरे लिए अच्छा ही होगा, क्योंकि किसी विद्वान ने कहा है छिन्नोऽपि रोहति तरुः क्षीणोऽयुपचीयते पुनश्चन्द्रः / * इति विमृशन्तः सन्तः परितप्यन्ते न विधुरेऽपि / / 1 // " अर्थात्-कटा हुआ वृक्ष फिर उगता है, क्षीण हुआ चन्द्रमा फिर बढता है। यह विचारते हुए सज्जन लोग दुःख में नहीं घबराते / इस प्रेरणा से राजा रत्नपाल पहिले जैसे सुख में अपने आपको भाग्यवान् समझता था उसी तरह इस प्राप्त हुए दुख में भी उस महा सत्व शाली की मुख शोभा समान हो गई। / तदनन्तर वह पलंग से उतर कर चारों तरफ वन को देखता हुआ एक पर्वत के सामने आया और धीरे धीरे उसके ऊपर चढने लगा। विस्मित की भांति वन की शोभा को देखते हुए उसने एक सुन्दर मनुष्य को वृक्ष के मूल में बन्धा हुआ देखा / उसे बन्धन से छुड़ाकर सुके हुए उसको वह पूछने लगा-तू कौन है ?, किस कारण, किसने तुझे बांधा है ? यह सब साफ 2 मुझे कहो। वह बोला-वैताड्य P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ___32 ] ॐ रत्नपाल नृप चरित्र * पर्वत पर गगनवल्लभ नामक नगरी में इन्द्रतुल्य बलशाली विद्याधर वल्लभ नामक राजा है, मैं उसका पुत्र हूँ, मेरा नाम हेमांगद है। मैं अपनी धर्मपत्नी के साथ नन्दीश्वर द्वीप पर जिनेश्वर भगवान् को नमस्कार करने जा रहा था। मार्ग में राक्षसी विद्या के बल से उन्मत्त एक खेचर मिला। उसने मुझे बांधकर मेरी स्त्री को हरली / हे प्राणप्रद ! जगद्वीर ! इस समय तुम मेरी सहायता करो, जिससे उस शत्रु को जीतकर मैं अपनी स्त्री . को प्राप्त कर सकें / इस प्रकार वह विद्याधर रत्नपाल से प्रार्थना कर ही रहा था कि इतने में यमराज से आकृष्ट हुआ वह राक्षस वहां आ गया। उसे देख रत्नपाल ने कहा-ऐ परस्त्री के लोभी, रे पापी ! तू अपने इष्ट देवता को याद कर / दुष्टों का शासन करने वाला रत्नपाल नृप तुझे मिल गया। यह कहकर उसके साथ युद्ध करके उसे पराजित किया। वह भयभीत होकर अपनी जान लेकर भाग गया / इस प्रकार बिना कहे ही उस नृप ने हेमांगद का प्रयोजन सिद्ध कर दिया / सज़न लोग परिणाम में अपनी उपयोगिता. नहीं कहते / अपनी स्त्री को पाकर प्रसन्न हुए हेमांगद ने नृप से कहा-आप मेरे निमित्त रहित उपकारी हैं। मैं आपका कौनसा अभीष्ट सिद्ध करू ? उस समय रत्नपाल ने कहा कि मेरा कोई प्रयोजन नहीं दिखलाई पड़ता। हे मित्र ! तू स्त्री सहितं घर जाकर यथेष्ट सुख भोग / कहा है कि जो उपकार P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ करने योग्य. मनुष्यों पर उपकार करके फिर उन्हीं के याचक होते हैं, उनमें मनुष्यत्व क्या है. मानो ब्रह्मा के बुढापे का विकार: है। .. . : FIR BLAP . 1 तदनन्तर उस विद्याधर ने नहीं चाहते हुए भी नृप को विषवेग को हरने वाला औषधिवलय "कड़ी" दिया। अनन्तर नृप रत्नपाल से आज्ञा लेकर स्त्री सहित अपने नगर को चला गया / रत्नपाल नृप धीरे उस पर्वत से नीचे र मूलस्थान नामक नगर में गया। वहां दीनं अनाय की कुटी में रहे हुए विदेशी श्रावक को बहुत रोगी देखा, तीन दिन तक राजा ने धर्म बुद्धि से पथ्य और औषध आदि से सेवा की। परन्तु उसके जीवन की कोई आशा नहीं देखकर जा पुण्य कृत्य होने चाहिए वे सब पुण्य कर्म करवाये / समाहित मन से मर कर वह विदेगी श्रावक देवलोक में INFjENTER_FE IT IELis रत्नपाल नृप प्रातःकाल नगर में प्रविष्ट हुआ। राजमार्ग में जाते हुए उसने पटह घोषणां सुनीं / वह 'पटह घोषणी इस प्रकार हो रही थी लेमन्जतना जानने वालोबल वाहन सजा के रत्नवती नामक पुत्री को सक्ति में दुष्ट सूर्प ने इसा है। अनेक प्रकार के आया करने पर भी कुछ लाभ नहीं "देवता' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * কাল নৃৎ বন্তি # हुआ, इस समय कन्या निश्चेष्ट और मृतक तुल्य हो गई है। जो कोई मनुष्य मन्त्रतन्त्र या औषधि के बल से उसको जीवन दान देगा, राजा उसे अर्द्धराज्य के साथ अपनी कन्या का विवाह कर देगा। उस घोषणा को सुनकर अत्यन्त . करुणा से और अपनी निपुणता से निस्पृह भी नृप रत्नपाल पटह के स्पर्श द्वारा राजसभा में गया / " ___ इस असाधारण याकृति वाले में शुद्ध आम्नाय विद्या बन सकती है, ऐसा सोचकर राजा ने आदर से उस कन्या को उसे दिखा दिया। राजकुल में तथा स्त्रियों में आडम्बर की पूजा होती हैं, ऐसा सोचकर रत्नपाल ने भी नाना आडंबर किये। फिर औषधि के रस से उसके विष-वेग को दूर करके तत्काल उसको जिला दिया। जिससे उसका पिता बहुत प्रसन्न हुआ। इस अज्ञात नर के कुल आदि ज्ञात न होने से राजा व प्रजा में शंकायें पैदा होने लगीं, परन्तु वचन बद्ध होने से राजा को अपने आधे राज्य के साथ अपनी कन्या का विवाह उसके साथ करना पड़ा। तदनन्तर यह विनयपाल का पुत्र पराक्रमी राजाधिराज रत्नपाल है किसी कारण से अकेला है, ऐसा भाट लोगों के कहने पर बलवाहन राजा ने मन में प्रसन्न होकर कहा कि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * द्वितीय पच्छेिद 635 पुत्री को योग्य वर मिला, ऐसा सोचकर फिर बहुत प्रसन्न हुआ। . अतुल राजलक्ष्मी के पाया हुआ और रत्नवती स्त्री के साथ पांच प्रकार के विषय सुखों को भोगता हुआ भी रत्नपाल नृप दुष्ट मन्त्री द्वारा किये गये विश्वासघात को . "जो उसके हृदय पर अङ्कित था" भूला नहीं। . . ..... किसी कवि ने कहा है:...मृगेण दत्तां किं लत्तां विस्मरेज्जातु केसरी।. यत तां स नूनं समये स व्याजां वालयिष्यति // 1 // '' अर्थात् मृग द्वारा मारी हुई लात को सिंह क्या भूल सकता है ? समय आने पर वह निश्चय करके व्याज सहित उसे चुकायेगा / उचित समय और शकुन देखकर बहुत बड़ी भारी सेना लेकर नृप रनपाल उस दुष्ट मन्त्री को जीतने के लिए अपने नगर की ओर चला। ...एक दिन मार्ग में घने जंगल में सेना सहित नप रात्रि के विश्रान्ति हेतु ठहरा.। अर्द्धरात्रि के समय दूर से आती हुई दिव्य गीत-ध्वनि को सुनकर तलवार हाथ में लेकर अकेला ही कौतुक से वहां चला गया। वहां उसने ऊचे 2 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 36 ॐ रत्नपाल नृप चरित्र शिखर वाला एक देव मन्दिर देखीं, जो अत्युज्वल तथा रमणीय था। सत्व की खान राजा रनपाल जब 'उसमें प्रविष्ट हुआ तब तक सखियों के . साथ., कोई. विद्याधर की कन्या जिनेवर भगवान् के आगे अनेक प्रकार के उत्सव और नृत्य गीत आदि..करके सुन्दर विमान में वैठकर शीघ्र अपने स्थान को चली गई / मन्दिर में जाकर ऋषभदेव भगवान् की प्रतिमा को नमस्कार करके और उस मन्दिर की सुन्दरता को देखने की इच्छा से चारों तरफ घूमते हुए राजा ने सामने पड़े हुए सौभाग्य मंजरी के नाम से अङ्कितः कंकण को देखकर ग्रहण कर लिया / प्राप्तकाल अपनी सेनाल्में आकर उसके आगे 2 चला और अपने राज्य की प्राप्ति से उत्कण्ठित हुआ क्रम से अपने नगर के पास पहुंचा। ........ 1 . उस समय प्रतापशाली नृप रत्नपाल को अपने... राज्य को लेने के लिये झाले. हाए सुनकर, दुःखी जयपाल ने मन में विचार किया-"मुझ समर्थ- का यह केचारा अकेला क्या कर सकता है ?" ऐसा विचार कर मैंने इसको जीवित ही वन में छोड़ दिया था,मुझे अब मालूम हुआ कि दुर्दैव से प्रेरित होकर मुझ कुबुद्धि में काले सांप की पूंछ काटकर अपनी ही मृत्यु के लिए छोड़ा था। राजनीति में कहा गया है: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ द्वितीय परिच्छेद ? विराध्यते न नीतिज्ञे महानात्म हितार्थिभिः / / :: कर्हि चित्स विराद्धश्चेत् तर्हि जीवन् न मुच्यते // 1 // अर्थात् नीतिज्ञ लोग अपनी भलाई की इच्छा से बड़ों के साथ विरोध नहीं करते, 'यदि किसी प्रकार बड़े मनुष्य से विरोध हो जाय, तो जीवित नहीं रह सकता। अन्य शास्त्र में भी कहा है: उत्तिष्ठन्तो निवार्यन्तै सुखेन व्याधि शत्रवः 'भवन्त्युपायों साध्यास्ते बद्ध मुलाम्तु 'मृत्यवे // 1 // ....... अर्थात् उठते हुए रोग और शत्रु सुख से दूर किये जा सकते हैं, वे ही बद्धमूल होने पर, अनेकों उपायों से भी असाध्य हो जाते हैं और मृत्यु कारक होते हैं। गये हुए समय.. को सोचने से अब क्या प्रयोजन ? प्रत्युत रण में संमुख होकर मर जाऊ या उसे मार डोलू, शूर वीरता से युद्ध में मर जाने पर. स्वर्ग की प्राप्ति होती है और शत्रु को मारने पर राज्य की प्राप्ति होगी। इस प्रकार युद्ध में शूरवीरों के दोनों हाथों में लड्डू हैं, एक बात तों .. निश्चित है। यह विचार कर जय मन्त्री धैर्य धारण कर राजा . के संमुख आकर सेना सहित युद्ध करने के लिए तैयार हो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ Ater ___38] __ * रनपाल नृप चरित्र के गया और खन्न, कुन्त और शर' के समूह तथा मुग्दरों से क्रूर आक्रमण करने वाले शूरवीर आपस में घमासान युद्ध करने लगे। रत्नपाल नृप की बड़ी बलवती सेना ने अधम जय मन्त्री की सेना को भंग कर दिया। अपनी सेना को भागती हुई देखकर कुपित हुए मन्त्री ने राजा की फौज पर फैलने वाली अवस्वापिनी निद्रा छोड़ी। उस विद्या से राजा की चैतन्य रहित हुई समस्त संना हाथ से गिरते हुए अपने शस्त्रों को भी नहीं जानती थी, इस प्रकार ज्येष्ठ मास की तरह सघ कार्यों में आलस्ययुक्त अपनी सेना को देखकर महाकष्ट में पड़ा हुया राजा हृदय में दुःख पाने लगा। उस समय वैदेशिक श्रान्तश्रावक जो पहले देवता हुआ था उसने अवधि ज्ञान का प्रयोग करके राजा को दुःख में पड़ा . देखा, तत्र प्रत्युपकार के लिए वहां आकर राजा की सेना पर पड़ी हुई अवस्वापिनी निद्रा को हरण करके समस्त बल को स्वस्थ किया। उस देव की कृपा से बल प्राप्त सेना फिर तेजी से युद्ध करने में तत्पर हुई। जब रत्नपाल की सेना स्वस्थ हुई, तप क्षीण विद्यावल वाला जय मन्त्री अपनी विजय से निराश . हो गया। .. जय मन्त्री जिसकी आत्मशक्ति दुष्कर्म की उष्मा से 1. बाण : .. S AChan... / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ द्वितीय परिच्छेद . नष्ट हो गई थी अपने विश्वासघात के पापों के फलों को भोगता हुआ सातवीं नरक में गिरा। राजा के मस्तक पर पुष्प-वृष्टि करते हुए देवाताओं की "धर्मे जयः क्षयः पापे" इस प्रकार आकाश में वाणी हुई / उस समय देव ने प्रकट होकर कहा- हे राजन् ! तूने वैदेशिक श्रान्तश्रावक की उस समय सेवा की थी, वह मैं समाहित मन से मरकर देवपन को प्राप्त हुआ है / हे मिव ! आज - तेरे पर संकट आने पर अवस्वापिनी विद्या को हरण कर तुझे जयश्री देने को पाया है। यह कहकर वह देव सैंकड़ों स्वर्ण कोटि रखपाल. राजा के सामने वर्षा कर देवलोक को चला गया। इस प्रकार जयामात्य को जीत कर पुरवासियों के धूमधाम से उत्सव करने पर वह राजा अपनी स्त्री के मिलने की उत्कण्ठा से नगर में प्रविष्ट हुया। उस समय पति की आज्ञा से मनोहर और स्वादिष्ट भोजन से पारणा कर प्रसन्नता से शृंगारसुन्दरी ने सर्वात शृंगार किया। तदनन्तर शील-रक्षा के लिए उन 2 कदर्थनाओं को सहन की हुई सुन- ... कर राजा रत्नपाल ने प्रसन्न होकर उसे पटरानी बना दिया / का किसी समय राज्य का पालन करते हुए उस राजा क पास कई वनेचरों ने आकर अर्ज की। हे राजन् ! आपके P.P. Ac. Gunratnasuri.M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ रत्नपाल नृप.चरित्र * .. पुण्य योग सेपहाड़ के समान शरीर वाला . वन्य , जातिमान हाथी कहीं से बगीचे में आया है। यह सुनकर आश्चयं से गजविद्या में कुशल वह नप उस हाथी को वश में करने के लिए स्वयं उस उद्यान में गया और. पहिले. पहला अपने दुपट्टे को समेट कर उसने हाथी के आगे फेंक दिया। क्रोध के 'भड़कने से मदोन्मत्त उस हाथी ने उसे अपने दातों मे दबा दिया। तब पृष्ट भाग पर नपा ने जोर से मुष्टि प्रहार किया। जैब वह पीछे मुड़ने लगा, तब घूमते हुए राजा ने उसे अत्यन्त खेदित किया, इस प्रकार : अत्यन्तः उसे खिन्न कर सेवक की तरह उसे वश में करके जवः राजा उसके ऊपर चढ़ा तत्र उसे वन्य हाथी ने छल प्रकट करको ना के. माथ गरुड़ की तरह अाकाश का मार्ग पकड़ा। आकाश में जाते हुए शेजा ने बहुत दूर होने से पृथ्वी पर रही हुई नदियों को, चकार रेखा के सदृश; बड़े सपर्वतों को टीलों के. सदृश और बड़े.. नगरों को कीटिका नगर की तरह आश्चर्य : से निर्भय, होकर देखा। और विचारने लगा कि क्या मैं आज किसी मित्र से विविध आश्चर्य युक्त स्थलों को दिखाने के लिए हरण किया जारहा हूँ, या कोई मेरा, शत्रु बड़ी आपत्ति में डालने के लिए मुझे लेजारहा है / नृप के दिमाग में ऐसा संदेह उठ ही रहा था कि हाथी किसी बहुत बड़े तालाब के ऊपर से होकर गुजरने लगा। नृप अपने भाग्य के भरोसे तीर्थङ्कर, भगवान् P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * द्वितीय पच्छेिद * [41 को स्मरण कर हाथी की पीठ पर से कूद पड़ा और तैर कर किनारे पर आ गया। वहां वह किसी दिव्य महल में प्रविष्ट हुया। आगे जाते हुए उसने तीसरी मंजिल में दो बड़े 2 भस्म के ढेर देखे, उससे थोड़ी दूर पर रखूटी पर टंके हुए रस से भरे हए तूम्बे को राजा ने देखा / अनन्तर उतावली से उस तूम्बे को लेने पर उसमें से कुछ छीटें गिरने से उस भस्म ढेर से दो स्त्रिये उत्पन्न हुई। विस्मित हुए राजा ने उन दिव्यरूपा स्त्रियों से पूछा-तुम दोनों कौन हो ? अचानक इस भस्मपुञ्ज से तुम कैसे प्रकट हुई ? वे दोनों दिव्यांगनायें सप्रेम राजा को देखती हुई इस प्रकार कहने लगीं-हम दोनों विद्याधरेश्वर महाबल की कन्यायें हैं और हमारा नाम पत्रवल्ली और मोहवल्ली है। हे सुन्दर ! क्रम से हम यौवन को प्राप्त हुई। विवाह करने की इच्छा से इस महा बलशाली मातंग ने परसों हमें हरण करके विद्या निर्मित घर में रक्खा है / जब वह कहीं बाहर जाना चाहता है, तब ईष्यालुचित्त हमें विद्या के बल से भस्मराशि चना डालता है और बाहर चला जाता है। वापिस लौटकर हमें फिर इस रस से जीवित करता है। हे सुन्दर युवक ! आज तुम हमारे पुण्यबल से यहां आये हो। इस समय वह दुरात्मा बाहर गया हुआ है, कहीं तुम्हें यहां आया हुआ न जान जाय / इस प्रकार. उन P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 42 ) * रत्नपाल नृप चरित्र के कन्याओं की बात पूरी हो भी नहीं सकी थी कि विद्या के बल से उद्धत वह मातंग उनसे विवाह करने की इच्छा से / वहां पहुंच गया। उस समय वे कन्यायें विचारने लगी कि हाय ! आज हमारे विवाह के निमित्त यह दुरात्मा ऐसे पुरुष रत्न को मारेगा। इस प्रकार कन्यायें विचार कर ही रही थीं, इधर राजा रत्नपाल ने सोचा कि मेरा पता लगने के पहिले ही मैं इसे मार डालं, यह तो क्षत्रियों का धर्म नहीं। इसलिए पहिले इसे में ललकार। राजा इस प्रकार विचार ही रहा था कि वहां किसी हाथी ने आकर अचानक ही उसे सूंड से उछालकर दोनों दांतों से पकड़कर मार दिया। उस समय राजा रत्नपाल यह आकाशगामी हाथी कौन है और - किसलिए इसने इस मातंग को मारा, इस प्रकार आश्चर्य और हर्ष से एक साथ ही भर गया। इधर महाबाहु महाबल अपनी कन्याओं के वियोग से चिन्तित हुआ उनकी खोज के लिए घूमता हुआ उस महल में आ पहुंचा। राजा को और दोनों कन्याओं को देखकर / हर्ष से कहने लगा-मुझे पहिले एक ज्योतिषी ने कहा था कि मातंग विद्याधर से भस्म किये हुए दोनों कन्या रत्नों को जो मनुष्य जिलायेगा, उसकी सहायता के लिए हाथी आकर मातंग को मारेगा, वह तेरी कन्याओं का पति होगा / Jun Gun Aaradhak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S.
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________________ * द्वितीय परिच्छेद * [43 नैमित्तिक की कही हुई यह वाणी आज सत्य हुई। इसी बीच में महा तेज की राशि के समान किसी देवता ने प्रकट होकर रत्नपाल राजा से प्रेमपूर्वक कहा-हे राजन् ! तूने उस समय मेरा उपकार किया था, उसे याद करता हुआ मैं तुझे जयश्री देने के लिए जयामात्य के युद्ध में आया था, आज हाथी के रूप को धारण कर कन्यायों की प्राप्ति के लिए मातंग ने तुझे हरण किया था। उस दुरात्मा को मैंने खेल ही में मार दिया। अब धर्मात्माओं को मिलने योग्य दिव्य रस से पूर्ण इस तूम्बे को हे भाई ! ग्रहण करने की कृपा 1. करो। चौबीस वर्ष तक कन्द मूलादि को खाते हुए प्रति दिन नीचे मुख करके दो प्रहर तक मन्त्र जप करते हुए, मातंगविद्या को जानते हुर, दुष्कर क्रिया को करते हुए और होम करते हुए मैंने प्रसन्न हुए नागराज से इस दिव्य रस को पाया है। इसकी एक बून्द के स्पर्श होने पर कोटिपल लोह स्वर्ण बन जाता है। उसी प्रकार दुःसाध्य. व्याधियें शान्त होती हैं। इसके स्पर्श से भूत प्रेतादि के उपद्रव विलीन हो जाते हैं और हर रोज काम में आने पर भी क्षीण नहीं होता / जगत को जीतने की महिमा वाले इस रस से तिलक करने पर मनुष्य युद्ध में देवता और असुरों से भी अजय्य होता है। अन्य भी दुःसाध्य कार्य इससे सिद्ध होते हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 44] * रत्नपाल नृप चरित्र * यह रस चिन्तारनों आदिकों से भी बढ़कर है। हे मित्र ! फिर कभी कार्य होने पर मुझे स्मरण करना। यह कहकर वह देवता विद्युत् प्रकाश की तरह अन्तर्धान हो गया। .... - वहां रहे हुए विद्याधर महावल ने राजा रत्नपाल पर देवता की कृपा देखकर विस्मय किया और विमान में बैठाकर वैताड्य पर्वत पर बसे हुए अपने नगर में ले गया। वहां राजा रत्नपाल ने अपने पुण्य से प्राप्त हुई मनोहर दोनों कन्याओं के साथ महावल से किये हुए उत्सव पूर्वक विवाह कर लिया। महाबल आदि विद्याधरों से विनयपूर्वक सत्कार पाया हुआ नृप रत्नपाल कुछ दिन वहां ठहरा।.... ..... इधर उसी वैताड्य पर्वत पर गगनवल्लभ नामक नगर में वल्लभ नामक महीपाल का हेमांगद नामक बलवान् पुत्र है और समस्त कलाओं में निपुण सार्थक सौभाग्यमंजरी नाम की कन्या है / क्रमसे उसने यौवन को प्राप्त किया। एक बार उसके पुण्य से प्रसन्न होकर कुलदेवी ने दिव्य रत्नजटित सव कामनाओं को पूर्ण करने वाला कंकण उसे दिया। एक बार रात्रि में जिनमन्दिर में सखियों के साथ नाच करती हुई उसके हाथ से वह कंकण कहीं गिर पड़ा। उस दिन से लेकर बालपन से रहित वह वाला सरस आहार को छोड़कर केवल. / / / / / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust 15
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________________ द्वितीय परिच्छेद * [45 फलाहार करती हुई तपस्या करने लगी। अपनी लड़की के दुःख से दुःखी हुए राजा ने किसी ज्योतिर्विद से पूछा, और उसने साफ 2 कह दिया कि हे राजन् ! सौभाग्यमंजरी के कंकण को हरण करने वाला पुरुष-रूप में कामदेव को जीतने वाला सलक्षण सम्पन्न है और वह स्वयं ही उसके स्वयम्वर में उपस्थित होगा और वह वहां उसके साथ विवाह करेगा। दैवज्ञ के वचन को सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। तदनन्तर नृप ने अपनी सौभाग्यमंजरी कन्या के लिए स्वयंवर महोत्सव रचा। उस स्वयंवर में दूतों द्वारा बुलाये हुए अनेक राजा लोग आये थे। कौतुक से महाबल आदि विद्याधरों के साथ रत्नपाल नृप भी वहां आया / १उस स्वयंवर में अच्छे 2 अलंकारों से सजे हुए सुन्दर मंचों पर बैठे हुए नभश्चरों को देखती हुई सौभाग्यसुन्दरी ने अपने कंकण से मंडित राजा रत्नपाल को वरण किया। यह देख हेमांगद आदि विद्याधर बहुत प्रसन्न हुए। वलय मंडित नृप के वरण करने पर अन्य खेचर लोग मलिन मुख हुए आपस में विचार करने लगे कि इतने वीर विद्याधरों के रहते यदि यह मानव नृप इस कन्या को विवाह लेगा तो ये सब विद्याधर मरे हुए से ही हुए। इस प्रकार अपने अपमान से अत्यन्त क्रुद्ध हुए खेचर लोग सजकरके सेना सहित युद्ध करने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 46 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * को उठ खड़े हुए। उस समय महाबली वल्लभ आदि खेचर वीरों के साथ उस दिव्य रस से उत्पन्न अभित तेजसाली देवताओं से भी अजय्य रत्नपाल महीपाल ने चिरकाल तक शस्त्राशस्त्रि युद्ध करके उस कन्या को ग्रहण करने में उद्यत सब शत्रु खेचरों को सहज ही जीत लिया। उस समय मनुष्य और देवताओं में यही एक वाणी गूंज रही थी कि भूचर ने समस्त खेचर विद्याधरों को जीत लिया। यह बड़ा आश्चर्य है। इस प्रकार की वाणी से अत्यन्त अपमानित होने से दुखी हुए विद्याधर लोग शस्त्रधारियों से उच्छ्रसित हुए युद्ध में गिरे हुए की तरह थे। नृपराज रत्नपाल ने भी शत्रुओं की मूर्तिमान् जयलक्ष्मी के समान सौभाग्यमंजरी का बड़े उत्सव के साथ पाणिग्रहण किया। तदनन्तर हेमांगद ने पुरानी प्रीति से बहुत सी प्रज्ञप्ति गौर्यादि विद्यायें दी और उसने उन्हें साध लिया। उस सिद्ध - विद्या के बल वाले राजा रत्नपाल ने वैताड्य पर्वत की दोनों श्रेणियों के सब नभश्वरों को जीतकर अपनी आज्ञा को प्रवर्त किया। अनेक प्रकार के उपहार की श्रेणि से पूर्ण है श्री जिसकी ऐसा सरलाशय वह नृप अपनी उन तीन स्त्रियों के साथ हेमांगद आदि विद्याधरों से निषेध करने पर भी विमान में चढ़कर सुख से अपने नगर में पहुँचा / ..... टा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. - Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * द्वितीय परिच्छेद * जब राजा को हाथी हरण करके लेगया था, उस . दिन से सारी प्रजा विरह दुख और दाह से पीड़ित थी। उस प्रजा को अपने दर्शनरूपी अमृत की वर्षा से उसने शीतल किया। विद्याप्रेमी सुरेन्द्रमुनि कृते रत्नपाल चरित्रे भाषानुवादे रत्नपाल नृप राज्य प्राति विवाहादि वर्णनो नाम द्वितीय परिच्छेदः समाप्तः॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ तृतीय परिच्छेद 8 MIX स र्य के सदृश प्रतापी उस नूप ने अपने परिपक्क पुण्य 1 से समृद्धिशाली राज्य पाया। और उसका पालन करता था। जो मनुष्य अपूर्व आश्चर्ययुक्त कथा को कहता था, उसे राजा दस लाख स्वर्ण मुद्रा इनाम देता था। उदाराशय वह नृप लाखों दीन दुखियों, दुर्बल अनाथों को प्रतिदिन दस लाख सुवर्ण मुद्रा देता हा उन्हें आश्वासन देता था। काव्य के रस का मर्मज्ञ वह नप नवीन काव्य के बनाने वाले को दस लाख सुवर्ण मुद्रा पारितोषिक देता था। 'सब स्थानों में फैल रही है कीर्ति जिसकी, कीर्तिदान से उल्लसित है बुद्धि जिसकी' ऐसा वह नप याचकों को दो लक्ष सुवर्ण मुद्रा सदा वितीर्ण करता था। धर्म के प्रभाव P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * तृतीय परिच्छेद 2 [49 से अतुल लक्ष्मी ऋद्धि सिद्धि की प्राप्ति कर ना रत्नपाल ने धर्म में श्रद्धा होने के कारण सप्तक्षेत्री में सर्वदा तीस लाख सुवर्ण देना शुरू किया। अन्तःपुर तथा अपने शरीर के लिए, नौकर कर्मकर आदि के निमित्त, एवं हाथी घोड़ों के लिए तीस लाख स्वर्ण मुद्रायें रोज व्यय होती थीं। इस प्रकार नृप रत्नपाल के स्वर्ण कोटि व्यय होती हुई सदा देखने में आती थीं, वह स्वर्णकोटि दिव्य रस के प्रभाव से सहज ही प्राप्त हो जाती थी। ......इधर उस नगर में एक इतकार रहता था। वह सदा एक लाख द्रंभ 'सिक्के' जीतता था और फिर हार जाता था। संध्या समय उसके पास द्रंभ का तीसरा भाग तो बच ही जाता था, उसके मूल्य से गेहूं के पुओं को कहीं जाकर पकाता था और चंडी के मन्दिर में जाकर चण्डी के कन्धे पर पैर रखकर दीप के तेल में चुपड़ कर पुओं को निःशंक होकर खाया करता था। उस समय चण्डी मन में विचार करती कि यहां पर कोई मनुष्य आवे तो मेरे प्रसिद्ध महात्म्य को जान जाय / इस प्रकार चिन्ता करती हुई देवी दुखित हो किसी प्रकार उसे निकालना चाहती थी। 1. किसी समय वह निःशंक होकर पुए. खारहा था, ऐसे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 50 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * समय में उसे कुछ कहने की इच्छा से देवी ने जीभ निकाली / तब उसने कहा कि हे चण्डी! तू भी इस पुए के टुकड़े को खा। ऐसा कहकर उसने उसकी जीभ पर पुए का टुकड़ा रख दिया। उसने भी माया से खा लिया। तत्र उसने उसकी निकली. हुई जीभ देखकर कहा कि हे चण्डी ! तू बड़ी लोभिन है, इसलिए तूने फिर लम्बी जीभ निकाली है। ऐसा कह कर उसने जीभ पर थूक दिया। देवी ने विचारा कि मैं उच्छिष्ट जीभ को कैसे मुख में डालूं ? यह सोचती हुई वह वैसे ही दुखित होकर बैठी रही। प्रातःकाल . में चण्डी को भयानक देखकर लोग आपस में कहने लगेयह उत्पात अनर्थकारी होगा। यह कहकर उन लोगों ने उत्पात की शान्ति के लिए शान्तिक कर्म कराये / तो भी देवी उच्छिष्ट जीभ मुख में न डालती थी। तब लोगों ने यह पटह वजाया कि जो इस उत्पात को शान्त करेगा, वह सौ सुवर्ण आज ही पावेगा / .. उस समय अपने सामने ही उत्पन्न हुए उत्पात को जानते हुए उस धूर्त ने पटह को स्पर्श करके सौ मुहरे ग्रहण करली। तदनन्तर सब लोगों को हटा कर एकान्त में देवी के मन्दिर में जाकर बड़े पत्थर को हाथ से उठाकर देवी से निष्ठुर वचन कहने लगा। हे रण्डे चंडी ! इसी वक्त तू अपनी जीभ को मुख में वापिस ले ले, नहीं P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 111391 ॐ तृतीय पच्छेिद * तो इस पत्थर से तेरा मुख अवश्य ही तोड़ डालूंगा। यह सुनकर देवी ने विचारा कि इस दुरात्मा के इस पाप कर्म से किसी प्रकार उद्धार नहीं होगा, और अपनी हानि तथा मनुष्यों में हंसी होगी। मैं इस दुष्ट का कुछ अनर्थ भी नहीं कर सकती। इस तरह विवश होकर भय से उसने अपनी जीभ मुख में ले ली। इस प्रकार उस उत्पात के शान्त होने पर सब पुरवासी प्रसन्न हुए। धूर्त ने तो सारा धन उसी दिन गमा दिया। किसी विद्वान् ने कहा है___ द्विघटं पहिला मुनि द्य तकार करे धनम् / हारश्च मर्कटी कंठे कियढेलं हि तिष्ठति // 1 // अर्थात् हठीली स्त्री के सिर पर दो घड़े, जुआरी के हाथ में रहा हुआ धन, वानरी के गले में हार, ये कितने समय तक रह सकते हैं ? तदनन्तर भी चण्डीघर में रात्रि में आकर सदा बह छ तकार उसी प्रकार निशंक होकर पुओं को खाता था। किसी समय उस दुष्ट के साथ अन्य कुछ न करने की शक्ति वाली और उसके दुर्विनय से दुखी हुई देवी ने उस धूर्त के रात्रि में आने पर अपने मन्दिर से एक दीपक निकाला। उसे देखकर धूर्त बोला-हे दीप ! ठहर / कहां जा रहा है ? इस प्रकार कहता हुआ उसके पीछे चला, तर देवी की आज्ञा से.दीपक उससे कहने लगा-रे धूर्त ! आधायी काल सागर सरि सानादि ___श्री महापीर मे आराधना केन्द्र फेवा, जि. गांधीनगर, पीन-३८२००९ P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 52 ] .. रत्नपाल नृप चरित्र * तू रूखे ही पुओं को भक्षण कर / . मैं तुझे थोड़ा भी तैल न दंगा। मैं समुद्र के उस पार जाऊंगा। तू मेरे पीछे से लौटता क्यों नहीं ? वह वोला-वहां आकर भी मैं तैल लेनूंगा। तू हां तक भागेगा ? आगे 2 दीपक, पीछे 2 वह धूर्त दोनों जल्दी 2 जाते हुए सूर्य के उदय होने पर एक दूर जंगल में पहुँचे / उस समय उसको चकमा देकर वह दोपक अन्तर्धान हो गया। 'शत्रु को सर्प की तरह दूर फेंक दिया ऐसा सोचकर वह सुरी' अत्यन्त हृष्ट हुई। उस / समय वह धूर्त 'हाय ! देवी ने मुझे भ्रान्त कर दिया' इस / प्रकार वह मन में दुखी होता हुआ जंगल में भटकने लगा / उस धूर्त ने प्रज्वलित अग्निकुण्ड के समीप अप्सराओं को भी जीतने योग्य जिनका सौभाग्य है, ऐसी उठते हुए यौवन वाली दो कन्याओं को और एक मनुष्य को जो विकलांग था, देखा। तुम कौन हो और यहां कैसे आई। यह पूछने पर उन्होंने कुछ भी उत्तर न दिया। तब वह लौटकर नगर में आ गया। . . इस नगर में रत्नपाल नामक राजा है, जो मनुष्य सच्ची और अपूर्व वार्ता कहे उसे वह दस लाख सुवर्ण देता है। 1. देवी P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust.
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________________ * तृतीय परिच्छेद * यह जानकर उसने राजा के पास जाकर सारा वृत्तांत निवेदन कर दिया / कौतुक से राजा भी तत्काल उसके साथ वहां गया और दोनों कन्याओं और मनुष्य को देखकर कहने लगा-मैं रत्नपाल नप हूं। यह कौन है और तुम दोनों कौन हो तथा यह अग्निकुण्ड क्यों है ? इन सबका ठीक ठीक निर्भय होकर उत्तर दो। इस प्रकार राजा के पूछने पर एक कन्या बोली-हे राजन् ! हम दोनों कन्यायें गन्धर्वराज विश्वावसु की पुत्रियाँ हैं और देवसेना तथा गन्धर्वसेना नाम से हम प्रसिद्ध हैं। क्रमसे सुन्दरता रूपी कंद को उद्भेदन करने वाले मेघ के समान यौवन को प्राप्त हुई हैं। देदीप्यमान अतुल ज्वालायुक्त अग्नि में मन्त्रपूर्वक घी की आहुति आदि से तथा मन्त्रतन्त्र और औषधि के बल से भी हम किसी से स्तब्ध नहीं की जा सकतीं। यमराज के मुख की तरह भयंकर अग्नि में जो उत्तम पुरुष स्नान करेगा, वह सत्वशाली आपकी पुत्री का पति होगा और वह शत्रुओं से अजेय तथा भरतार्द्ध का चक्रवर्ती होगा। ऐसे दैवज्ञ के वचन से प्रेरित होकर पिता ने हमें यहां छोड़ा है। उस सत्वशाली की परीक्षा करने के लिए मेरे पिता ने विद्या द्वारा हीन सत्व से 'कायर से' न देखने योग्य इस अग्निकुण्ड को बनाया है। यह विद्याधर हमें प्राप्त करने के लोभ से इस अग्निकुण्ड में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 54] * रत्नपाल नृप चरित्र * कूदता हुआ संशय युक्त हो गया, इस कारण देवी ने इसे विकलांग बना दिया। अब यह निराश और निरुत्साह होकर अपने घर चला जायगा। क्योंकि सिद्धि सत्व से ही होती है। सब ही कार्य सत्व से 'मनोवल से प्रतिष्ठित होते हैं / इस प्रकार कन्या के वचनों को सुनकर सत्वशाली उस नृप रत्नपाल ने एकदम उस अग्निकुण्ड में छलांग मार दी। सत्व से उसका शरीर सुधामय हो गया। उस अग्निकुण्ड में स्नान करने से वह राजा वज्र शरीर वाला हो गया। उस समय सब वृत्तान्त के ज्ञात होने पर विश्वावसुगन्धर्वराज वहां आया र प्रसन्न होकर महोत्सव के साथ दोनों कन्याओं का पाणिग्रहण रत्नपाल नृप के साथ कर दिया। दोनों पत्नियों की प्राप्ति से प्रसन्न हुआ नप अपने नगर में आ गया और उस द्यूतकार को बीस लाख मुहर दी / पहिले जो घतकार आते और जाते अन्याय से प्राप्त धन से पूर्ण और रिक्त होता था वही न्यायमार्ग से राजा द्वारा प्राप्त हुए धन से प्रतिदिन / वर्द्धमान ऋद्धि वाला हो गया। यह न्याय का फल स्पष्ट है। उस उत्तम चरित्र वाले नप के अनुभूत उपदेशों से वह छतकार व्यसन से निवृत्त हो गया। ___ एक वार महीपति रत्नपाल शीतल नदी के प्रवाह में जलक्रीड़ा करने की इच्छा से नाव पर आरूढ़ हुआ। अवा P.P. Ac. Gunratnasuri M:S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * तृतीय परिच्छेद * नक पीठ के प्रबल वायु से प्रेरित वह नाव वायु वेग से पूर्व दिशा की ओर चलने लगी। उस समय राजा ने दोनों किनारों पर बसे हुए गांव और बगीचों को चक्र पर चढे हुए की तरह घूमते हुए देखा / दो घण्टों के बाद वह नाव पूर्व समुद्र की तीर को पाकर स्वयं ही स्खलित हुई की नई ठहर गई और नृप तट पर उतर गया। वहां किसी मनुष्य ने आकर विनय पूर्वक कहा-हे राजन् ! किञ्चित्मात्र भी आप खेद मत करना कि किस जगह और देश में आ गया हूँ। क्योंकि 'आप जैसे महानुभाव के आगमन से सब लोगों का भविष्य सुखमय होगा।' राजा उससे कहने लगा कि यहां भविष्य सुखमय होगा' यह बात तूने कौन से निमित्त से या कौन शकुन से जानी है ? राजा के इस प्रकार पूछने पर वह सत्यवादी कहने लगा-मैं उत्तरकाल को जानता हूँ। हे सत्वनिधे ! मैं जो आपको सत्य वृत्तान्त सुनाता हूँ, उसे आप सुनिये / यहां समीप ही रहे हुए रत्नपुर नामक नगर में निवास करता हुआ रत्नसेन नामक राजा दस करोड़ गांव से मण्डित पूर्व देश को भोगता है। इस राजा. के 11 लाख मदोन्मत्त हाथी हैं, तीस लाख रथ, दस लाख घोड़े, दस करोड़ स्त्रिये, इस प्रकार सब आनन्द है। परन्तु कर्मानुभाव 1. तरह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ विकलांग अपने पर - रत्नपालन से उसका करने से वह .रि प्रसव . 1948 ग्रहण रतमा प्राप्ति सप्रस द्यूतकार को भी और जाते अन्याय स - वही न्यायमाग सं . वर्द्धमान ऋतिक उस उत्तम चरित्र कार व्यसन से नि एक चार म जलक्रीड़ा करने को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * तृतीय परिच्छेद * महात्मा तेरी कन्याओं को निरोग करेगा। ये देवी के वचन सुनकर नृपादि सब प्रसन्न हुए और वह देवी विजली के. स्फुरण के समान अदृश्य हो गई। देवी ने तुझे कन्याओं की व्याधि को शान्त करने के लिए लाया है। इस नगर से तेरा नगर पाँच सौ योजन दूर है। देवी की वाणी से आपके आगमन को जानकर हर्ष पूर्वक बड़ी ऋद्धि के साथ राजादि .. सब लोग इस समय आरहे हैं। उस मनुष्य के इस प्रकार कहते ही नृपादि सत्र ने आकर राजा रत्नपाल . को नमस्कार किया और विनय पूर्वक बड़े उत्सव के साथ उसे नगर में ले J गये / तदनन्तर नृप आदि ने परोपकारी राजा रत्नपाल से दोनों कन्याओं को निरोग करने की प्रार्थना की। यह सिद्ध रस शरीर के पास रहने पर सब अवसरों में उपयोगी होगा। इस विचार से राजा ने अपने भुजबन्द के छोटे से कूपले में रक्खा था। उस रस से कृपालु राजा ने पहिली कन्या के मस्तक पर स्पर्श किया, तत्काल ही वह कन्या नेत्रानन्ददायी रूप और शोभा से युक्त हो गई। फिर उसी रस से छोटी : कन्या के आंख में अञ्जन करते ही वह दिन में भी ताराओं को देखने में समर्थ दृष्टि वाली हो गई। - तदनन्तर गुण से खरीदी हुई दोनों कन्याओं को पिता रत्नसेन ने रत्नपाल को ही दे दी और उसने उनके साथ . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * रत्नपाल नप चरित्र * से हृदय और नेत्र को प्रसन्न करने वाला पुत्र नहीं है। केवल कनकावली नामक रानी से दो कन्यायें हुई हैं। उनमें से पहिली का नाम कनकमंजरी और दूसरी का नाम गुणमंजरी है। उन दोनों कन्याओं के यौवन आने पर अचानक गलत्कुष्ठ और अन्धता हो गई। राजा की आज्ञा से नाना शास्त्र को जानने वाले वैद्यों ने अनेक औषधियों से चिकित्सा की, मन्त्र शास्त्रियों ने अनेक मन्त्रतन्त्र और यन्त्र से विश्वास और शुभ उत्साह के साथ अनेक प्रतिक्रियायें की। अन्य भी बहुत से जानकारों ने अपने 2 आम्नाय के अनुसार प्रयत्न किये / परन्तु उन कन्याओं के कर्म के अनुभाव से थोड़ा भी गुण नहीं हुआ। रोग से व्याकुल हुई दोनों कन्यायें अपने मनुष्य भव को व्यर्थ मानती हुई दुःख से मरने के लिए तत्पर हुई। उनके अत्यन्त स्नेह पाश से वन्धे हुए प्रेम वाले राजा और रानी भी उनके पीछे मरने को दृढ़तत्पर हुएं / किंकर्तव्य विमूढ़ गुप्त प्रयोजन वाले मन्त्रियों ने राज्य की अधिष्ठात्री देवी की अनेक प्रकार की पूजा अर्चना. से आरा'धना आरम्भ की। तब देवी ने प्रसन्न होकर आकाश में - ठहर कर सब लोगों के सन्मुख स्पष्ट वाणी से कहा- हे - लोगो ! मेरे प्रयोग से प्रेरित होकर रत्नपाल नृप पाटलिपुत्र _ नगर से नाव में चढा हुआ शीघ्र ही यहां आवेगा। वह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * तृतीय परिच्छेद 2 महात्मा तेरी कन्याओं को निरोग करेगा। ये देवी के वचन सुनकर नृपादि सब प्रसन्न हुए और वह देवी बिजली के स्फुरण के समान अदृश्य हो गई। देवी ने तुझे कन्याओं की व्याधि को शान्त करने के लिए लाया है। इस नगर से तेरा नगर पाँच सौ योजन दूर है। देवी की वाणी से आपके आगमन को जानकर हर्ष पूर्वक बड़ी ऋद्धि के साथ राजादि .. सब लोग इस समय आरहे हैं। उस मनुष्य के इस प्रकार कहते ही नृपादि सब ने आकर राजा रत्नपाल को नमस्कार किया और विनय पूर्वक बड़े उत्सव के साथ उसे नगर में ले गये / तदनन्तर नृप आदि ने परोपकारी राजा रत्नपाल से दोनों कन्याओं को निरोग करने की प्रार्थना की। यह सिद्ध रस शरीर के पास रहने पर सब अवसरों में उपयोगी होगा। इस विचार से राजा ने अपने भुजबन्द के छोटे से कंपले में रक्खा था। उस रस से कृपालु राजा ने पहिली कन्या के मस्तक पर स्पर्श किया, तत्काल ही वह कन्या नेत्रानन्ददायी रूप और शोभा से युक्त हो गई। फिर उसी रस से छोटी कन्या के आंख में अञ्जन करते ही वह दिन में भी ताराओं - को देखने में समर्थ दृष्टि वाली हो गई। तदनन्तर गुण से खरीदी हुई दोनों कन्याओं को पिता रत्नसेन ने रत्नपाल को ही दे दी और उसने उनके साथ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 58 ] क रत्नपाल नृप चरित्र * . विवाह कर लिया। इसके बाद संसार से विरक्त मन वाले राजा रत्नसेन ने जामाता को सारा राज्य देकर दीक्षा ग्रहण करली / . . 3 राजा रत्नपाल अपनी स्त्री के साथ कितनेक दिन वहां रहकर राज्य के प्रबन्ध के लिए मुख्यमन्त्री को नियुक्त कर मार्ग में अमूल्य उपहार पूर्वक अनेक राजाओं से पूजित तथा सेना से पृवी को कंपाता हुआ क्रमसे अपने नगर में पहुंच गया। जिस - इधर नांव द्वारा राजा के अपहरण होने पर मन्त्री और सामन्त लोग किंकर्तव्य विमूढ हुए व्याकुलता से आपस में विचारने लगे कि हा ! राजा का शुभाशुभ वृत्तांत और स्वरूप मालूम नहीं होता। अब हम लोग क्या करें, इस अस्वामिक राज्य की कैसे रक्षा होगी ? प्रायः निःस्वामिक राज्यों की अच्छी तरह रक्षा न होने से दुष्ट राजा लोग अधिकार कर लेते हैं। जैसे देवलोक से किसी देवता के च्यवने पर यदि दूसरा देवता उत्पन्न न हुआ हो तो उस. राज्य को अन्य देवता लोग अधिकार में कर लेते हैं। महा भाग्यशाली तथा बलशाली राजा रत्नपाल का राज्य तो यहा हो वा . अन्यत्र, इस समय तो हम उसके पद के कृतज्ञ हैं। इस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * तृतीय परिच्छेद * [56 प्रकार विचार करके सामन्त और मन्त्री की सलाह से सिंहासन पर राजा की खड़ाऊ रखकर समस्त राजवर्ग नमस्कार करने लगा। उस शून्य राज्य में भी राज्य का अच्छा प्रबन्ध होने पर और दान मान से सन्तुष्ट किये जाने पर कोई भी राजवर्गी नहीं विघटित हुआ (फूटा)। ___ अब राजा के आने पर दर्शन की उत्कण्ठा वाले अत्यन्त स्नेह संभ्रान्त हुए सब लोग शीघ्र सामने गये / राजा रत्नपाल ने सबका यथोचित सत्कार करके अपने नगर में प्रवेश किया और मार्ग में दीन दुखियों को दान से प्रसन्न किया। जैसे उदयाचल के शिखर पर सूर्य के उदय होने पर चक्रवाकी प्रसन्न होती है, उसी प्रकार अपनी राजसभा में महीपति रत्नपाल के आने पर सब प्रजा आनन्दित हुई। अपने चिरकाल के वियोग से अशान्त मन वाली पत्नियों को स्नेहपूर्ण वार्तालाप से प्रसन्न किया / शृंगारसुन्दरी 1, रत्नवती 2, पत्रवल्ली 3, मोहवल्ली 4, सौभाग्यमंजरी 5, देवसेना 6, गंधर्वसेना 7, कनक मंजरी 8,. गुणमंजरी 5, ये नव पटरानिये रत्नपाल नृप के थीं। देवलोक के सदृश समृद्धि वाले नृप रत्नपाल के 20 करोड़ गांच थे। हजारों रत्न की जातियाँ थीं और बीस 20; P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 60 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * बड़े 2 नगर थे। सहस्र समुद्रतट" "नावों के ठहरने के स्थान" थे। बारह बड़े 2 मण्डलेश्वर राजा थे। दस सहस्र द्वीप और उतने ही मुकुटधारी द्वीप महीपति उसके अधीन थे। चालीस करोड़ पैदल सेना, तीस लाख हाथी, एक लाख रथ, चालीस लाख घोड़े निश्चित थे। जलदुर्ग पाँच सहस्र और स्थल दुर्ग दस हजार थे। हेमांगद आदि सहस्रों खेचर सदा उसकी सेवा करते थे। उस राजा के घर में दीन दुखियों के उद्धार के लिए और आश्रितों का पालन करने के लिए हमेशा एक करोड़ स्वर्ण व्यय होता था। पूर्वभव के पुण्य से जो महारस उसने तूम्बे में पाया था, उससे उतना ही स्वर्ण उसके हो जाता था। उस महारस के प्रभाव से उस राजा के राज्य में अधि "मनः पीड़ा" व्याधि सात प्रकार की ईतियां 'उपद्रव' महामारी आदि कभी नहीं फैलते थे। अनन्तर राजा रत्नपाल के क्रमसे शत्रुओं को जीतने वाले सौ पुत्र हुए, जिनके नाम मेघरथ आदि थे / उपरोक्त अत्यन्त ऐश्वर्यशाली राज्य को भोगते हुए सुख समुद्र में खेलते हुए नप रत्नपाल के 10 लाख वर्ष, दिन की तरह सुख से बीत गये। . .. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * तृतीय पच्छेिद * . [61 एक दिन उस नगर में महासेन नामक महामुनि मूर्तिमान धर्म की तरह लोगों पर कृपा करके पुरवासियों के कल्याण करने की भावना से पधारे / जिनके वचन रूपी अमृत से मिथ्यात्वरूपी विष का वेग नष्ट हो जाता है। ऐसे पूज्यपाद उन महामुनि को वन्दन करने के लिए अनेक श्रद्धालु भव्य मनुष्य आये। महाराज नप रत्नपाल भी अपने परिवार स्त्री पुत्रादि के साथ जंगम महा तीर्थ उन मुनिराज की उपासना करने को आये। उस समय अपार संसार रूपी महावन से मनुष्यों का उद्धार करने वाले उन मुनिश्रेष्ठ ने पूर्णतया समझा 2 कर धर्म-मार्ग का उपदेश किया। जो भव्य मनुष्य नित्य आने वाले जन्म, जरा, मृत्यु और भय आदि दुःखों से डरा हुआ शीघ्र मोक्ष गमन की इच्छा करता हो, वह मनुष्य आदर पूर्वक संसार सागर को पार उतारने में नौका के सदृश आर्हत धर्म की सदा आराधना करें। यह आराधना किया हुआ आहत धर्म सब आन्तर भीतरी' शत्रुओं को जीतने में सुसिद्ध और सुखसाध्य है। उन शत्रुओं में प्रधान मनःशत्रु है। उस एक के जीतने पर समस्त . वर्ग जीता हा ही है। शास्त्र में कहा है - एकस्मिन् जिते जिता पंच पंचसु जितेषु जिता दश / . दश धातु जित्वा सर्व शत्रून् जयाम्य हम् // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 62 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * / जो अर्थात् एक के विजित होने पर पाँच विजित होते हैं, पाँच के विजित होने पर दस विजित होते हैं। इस प्रकार दस प्रकार के शत्रुओं को जीतकर समस्त शत्रुओं को में जीतता हूं। . / एक मन के न जीतने पर कषाय और इन्द्रियाँ नहीं विजित होते / उनको यथाज्ञात जीतकर मैं मुनि विचरण करता हूं। जो शूरवीर युद्ध-स्थल में सैंकड़ों, हजारों, लाखों शत्रुओं को जीत लेते हैं, वे भी दुराशयी क्रूर अपने मन को जीतने में समर्थ नहीं होते। जो बड़ी भारी सिला को सहज ही उठाकर फेंक देते हैं, वे वीर भी मन को जीतने में समर्थ नहीं होते। जो लोग कुलीन, वक्ता, समस्त विद्या को जानने वाले होते हुए भी अपने मन को जीतकर स्वहित में जोड़ने में असमर्थ रहते हैं। जो अपनी वाणी से 1. मनुष्यों को प्रतिदिन बोध करता है। स्वयं विषयों को भोगता है, वह नन्दिषेण मुनि की भांति है। कहा है:.: दश दश दिवसे 2 धम्मे बोहेइ अहव अहिअयरे। * इय नन्दिषेण सत्ती तहवि असे संजम विपत्ती // 1 // तथाःपइ दिवस दस जण वोह गोऽवि सिरि वीर नाह सीसो वि / सेणि अ सुओविसत्तो वेसाए नन्दिषेण मुणी // 1 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. _Jun.Gun Aaradhak Trust
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________________ के तृतीय परिच्छेद * [63 . अर्थात्-प्रतिदिन दश 2 भव्यों को याः इससे भी अधिक को वोध देने की शक्ति वाले नन्दिषेण मुनि थे, तो भी उनके संयम में विपत्ति थी। प्रतिदिन दस. मनुष्यों को प्रतिबोध करने वाले तथा वीरनाथ के शिष्यं श्रेणिक पुत्र नन्दिषेण मुनि वेश्या में आसक्त थे / / कोई वीर बाहुबल से युद्ध में लाखों शत्रुओं को जीत ले और एक मन को जीते तो उसका परम जय है.। अनेक वीर उन्मत्त हाथियों को सुख से वश में कर लेते हैं, परन्तु निरंकुश मन किसी से भी दमन नहीं किया जा सकता / मन को ही दमन करना चाहिए। मन ही दुर्दम है, मन को वश में करने वाला इस लोक में और परलोक में सुखी होता है। जितात्मता फिर चिन्हों से जानी जाती है, न कि कहने से। जैसे सूर्योदय कान्ति से ज्ञात होता है, न कि सैंकड़ों शपथों से / शम, संवेद, निर्वेद, आस्तिक्य, मैत्री, दया, दम, समत्व, अममता आदि से जितात्मता जानी जाती है। जीत लिया है मन जिन्होंने ऐसे महात्माओं के मन में अनादि जन्म जन्मान्तरों से अभ्यस्त सांसारिक सुख की इच्छा प्रायः उत्पन्न नहीं होती। शुभ आशय वाले महात्मा लोग सब प्रकार के सर्वज्ञ और अल्पज्ञों के सद्धर्मानुष्ठान में निरन्तर यत्न करते रहते हैं। उस सदनुष्ठान के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. P.P.AC. Gunratnasuri M.. . Jun Gun Aaradhak Trust Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ' 64 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * . उद्योग से संसार रूपी समुद्र को पार करके जितात्मा लोग शीघ्र परम पद को प्राप्त हो गये / तुम्हारे लिए इसका दृष्टान्त मुग्धभट्ट-पत्नि का है। जिसने मन को जीतकर जल्दी ही परम पद को पाया। वह दृष्टान्त इस प्रकार है: पहिले समय में रमणीक प्रदेश वाला कौशाम्बी नगरी के पास समृद्धिमान् शालिग्राम नामक गांव था। उस गांव में सुन्दर गुणों का खजाना दामोदर नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्री का नाम सोमा था। जिस प्रकार शंभु की प्यारी उमा है, उसी भांति वह उसकी प्राणप्रिया थी / उन दोनों के मुग्ध स्वभाव वाला “मुग्धभट्ट" नामक पुत्र हुआ। उनकी पुत्रवधू "यथा नाम तथा गुणः" इस कहावत के अनुसार सुलक्षणा नामक थी, जो श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न हुई थी। किसी समय माता-पिता के मरने के बाद मुग्धभट्ट दारिद्रय के कारण अपनी स्त्री को घर में ही छोड़ . कर देशान्तर को चला गया / वृद्ध बूढे सासु-ससुर के और .. बालक के न होने से वह घर में अकेली थी। वह सती कुल के कलंक के भय से असद् आचरण से सदा भयभीत. रहती थी। उस समय चंचल स्वभाव वाले यौवन के कारण उच्छृखल और विषयों को स्मरण करते हुए अपने मन को वह निरोध करने में असमर्थ हुई। तब उस सती ने बड़े P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * तृतीय परिच्छेद * [65 सेठ की स्त्री शुद्ध आचरण शालिनी कमलश्री के साथ मन को रोकने के लिए मित्रता कर ली। उसके घर में आकर स्नेह गोष्ठी से मन बहलाकर निषिद्धाचरण के मार्ग से मन को कुछ रोकती थी। ले . एक दिन वहां निर्मल आशय वाली विमला नामक गणिनी अपने परिवार. साध्वियों के साथ पधारी और . कमलश्री के उपाश्रय में ठहर गई। तदनन्तर उस सुलक्षणा. ने अदृष्ट पूर्व उन साध्वियों को वहां आई हुई देखकर विस्मित हुई भोलेपन से अपनी सखी से पूछा-हे सखी ! स्वामि रहिता ये सब जगह घूमती रहती हैं, इनके पति, सन्तान आदि कहां है और इनका कुटुम्ब भी कहां है तथा ये सुहाग के चिन्ह और आभूषण आदि से तथा भोगसामग्री रहित, शृंगार रहित, सिर में मुण्डित क्यों है ? उसके इस प्रकार पूछने पर कमलश्री ने मुग्ध प्रकृति से कहाहे सखी ! ये सत्य और संयम से जीवन को बिताने वाली महासतियाँ हैं। मांगल्य श्रृंगार से रहित समस्त पापों से / मुक्त, कषाय रहित, निर्मल मन वाली, तत्वज्ञान को जानने वाली, शुद्ध ब्रह्मचर्य में लग्न और लौकिक मार्ग से पृथक हैं। तथा वीतराग भगवान् के उपदेश में निरत गुप्त आशय वाली हैं / ये संसार कूप में गिरने . वाली. अपनी जाति का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * रनपाल नृप चरित्र * उद्धार करने के लिए कृपा पूर्वक निःस्वार्थ होती हुई भी पृथ्वी पर विहार करती हैं। माता आदि समस्त संसार के सम्बन्ध को छोड़कर इनका मन चिरकाल से सर्व सावध विरति में लगा हुआ है। इनमें कई तो राजाओं की पुत्रियाँ हैं और कई महाजनों की। ये भोगों से विरक्त, निःसंग धर्म के आश्रित हैं। राजा और महाजन आदि सब लोग श्रद्धायुक्त होकर इनका गौत्रदेवी के समान तथा माता के सदृश बहुत आदर करते हैं। हे सखी ! शम और समता रस की प्रपा के सदृश इनकी संगति दुर्जन मनुष्यों को नहीं मिलती / समस्त दुःख को नष्ट करने वाली इनकी बंदना और आराधना. तो दूर रहने दो, केवल इनकी चरण-रज को मस्तक पर लगाने से मनोवाञ्छित सिद्ध होते हैं। इस प्रकार सखी की वाणी से जान लिये हैं साध्वी के सद्गुण जिसने, ऐसी उस सरल प्रकृति सुलक्षणा ने मन में विस्मय पूर्वक विचार किया कि मेरे पति को देशान्तर गये हुए बहुत ही अल्प समय हुआ है। इस थोड़े से समय में भी मेरा चंचल मन सन्मार्ग में नहीं ठहरता, ये साध्वियें सब काल में, सब उपाधियों से शुद्ध शील को पालती हुई जवानी के चंचल मन को कैसे रोकती होगी ? क्या इनके पास परम्परा से आया . हुआ कोई मन को रोकने का मन्त्र है या कोई महोषधि है P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ॐ तृतीय पच्छेिद * [67 अथवा गुरूजी द्वारा उपदेश की हुई कोई अन्य है ? मैं साध्वीजी को मनोनिग्रह का साधन पूछु। क्योंकि कुलस्त्रियों के लिए यह शोल सत्र स्थानों में उपयोग युक्त दीखता है। यह उपर्युक्त मन में विचार करके सुलक्षणा ने साध्वीजी से पूछा-हे मातः ! मुझे अच्छी तरह से समझाकर कहो कि ये तरुण साध्वियें किस प्रकार चंचल मन को रोकती हैं ? उस गणिनी ने कहा—हे वत्से ! नये नये सत्कृत्यों में संलग्न मन वाली साध्वियों का मन कभी कुमार्ग में नहीं जाता। जैसे हाथी के मर्म स्थान पर अंकुश के रखने पर सदा उसमें लगा हुआ हाथी का मन कभी उस ध्यान को नहीं छोड़ता, इसी प्रकार साध्वियें मनोनिग्रह करती हैं। कभी भी विषयों को स्मरण नहीं करता। जिस प्रकार गले में वन्धा हुअा बन्दर वश में आता है, उसी प्रकार चंचल . भी मन आत्मा के व्यापार में लगा हुआ योगी के वश में रहता है। आत्मा के प्रशस्त अथवा अप्रशस्त व्यापार में लगा हुआ मन वायुमार्ग आकाशं में रूई की तरह निश्चय करके प्रवृत्त रहता है। सत्पुरुषों को सदा अपना मन संयम योग में लगाना चाहिए / उसमें प्रवृत्त हुआ मन कभी कुमार्ग में नहीं जायगा। प्रशम रति में जो लिखा है वह आगे लिखा जाता है / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 68 ] * रत्नपाल नृप चरित्र के - पैशाचिक माख्यानं श्रुत्वा गोपायनं च कुलवध्वाः। 4 संयम योगैरात्मा निरन्तरं व्यापृतः कार्यः // 1 // अर्थात् पैशाचिक अाक्षान् को तथा कुलवधू के रक्षण ___को सुनकर आत्मा को निरन्तर संयम योग में लगाये रखना योग्य है / . .. . ___सर्व और देश-भेद से विशुद्ध संयम दो प्रकार का है / सम्यक्त्व की दृढ़ता के निमित्त उसका स्वरूप यह है जो प्राणी जीवादि नवतत्वों को स्वभाव से अथवा उपदेश से अच्छी तरह समझकर उममें श्रद्धा रखता है, उसको सम्यक्त्व कहते हैं। इस सम्यक्त्व में स्थिर बुद्धि वाला जो मनुष्य यथा समय सब आवश्यकादि क्रिया करे, वह शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होवे / . इस प्रकार सदुक्ति से पूर्ण साध्वी के उपदेश से लघुकर्म "हलवाकर्मी" होने के कारण उसने शीघ्र ही आर्हत धर्म को अंगीकार कर लिया। तदनन्तर साध्वीजी ने उसको समस्त श्रावक की क्रिया सिखा दी और वह यथा समय श्रद्धापूर्वक श्रावकाचार को पालती थी ! ज्ञानावरणी कर्म के क्षयोपशम से साध्वी के पास जाकर, प्रवचन को सुनकर क्रम से प्रवीण हो गयी। उस दिन से लेकर उसका नवीन नवीन अर्ह योग्य कर्म में संलग्न मन te.. . P.P.AC. Gunratnasuri M.S. . Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * तृतीय परिच्छेद * . [ 66 पानी में रही हुई मछली की तरह विषयान्तर को स्मरण नहीं करता था। * एक दिन लम्बे अर्से के बाद मुग्धभट्ट अपने घर आया और अपनी स्त्री से पूछा-हे सुभ्र ! तू बहुत समय तक मेरे वियोग से कैसे रही ? वह बोली-हे नाथ ! सद्धर्म में निरन्तर संलग्न रहने से मैंने आपके वियोग से उत्पन्न हुए दुःख को कुछ नहीं जाना। यह सुनकर ब्राह्मण कहने लग कि हे प्रिये ! वह कौनसा धर्म है ? तब उस स्त्री ने कहा ज्ञान, श्रद्धा, चारित्र रूप वह आहत धर्म है। यथावस्थित तत्वों का संक्षेप से अथवा विस्तार से जो ज्ञान है उसको विद्वान् लोग सम्यक् ज्ञान कहते हैं। जिन भगवान् से कहे हुए तत्वों में जो रुचि है, उसे सम्यश्रद्धा कहते हैं। वह किसी को स्वभाव से ही होती है और किसी को गुरूपदेश से। समस्त सावद्य योगों का त्याग चारित्र कहलाता है / वह चारित्र क्रम से साधु को सर्व रूप से और श्रावक को एक देश से विहित है। इस प्रकार उस स्त्री ने सर्वज्ञ भगवान् से उपदिष्ट धर्म का विस्तार पूर्वक वर्णन किया। सरल प्रकृति होने के कारण उस ब्राह्मण के मन में अच्छा लगा। किसी कवि ने कहा है: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 70 ]. * रत्नपाल नृप चरित्र * अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतर माराध्यते विशेषज्ञः। ज्ञानलव दुर्विदग्धं ब्रह्मापितं नरं नरंजयति // 1 // अर्थात् अज्ञ सुख से आराध्य है और विशेषज्ञ सुखतर आराधना करने योग्य है। ज्ञान के कुछ भाग से युक्त अर्थात् अर्द्धशिक्षित को ब्रह्मा भी प्रसन्न नहीं करता, अन्य. की तो वात ही क्या ? सर्वज्ञ भगवान् जिनेश्वर के उपदेश वाले सद्धर्म के हृदय में परिपक्व होने पर वह मुग्धभट्ट शने -2 निश्चय श्रावक बन गया / . .. . तदनन्तर आपस में प्रेम पूर्वक गृहस्थ के सुखों को भोगते हुए उन दोनों के गृहस्थाश्रम रूपी वृक्ष का फल -पुत्र समय पर उत्पन्न हुआ। एक दिन शीत काल में मुग्धभट्ट - अपने पुत्र को कमर पर चढाकर शीत से व्याकुल हुआ ब्राह्मणों से भरी हुई हथाई पर अंगीठी तापने के लिए चला गया। वहां बैठे हुए ब्राह्मणों ने “यह अपना धर्म छोड़कर श्रावक बन गया है। इस ईष्या से कहा-हे महा.भाग ! यह धर्मार्थ अंगीठी है, इसके पास मत आओ, नहीं तो तुम्हारा धर्म दषित हो जायगा और तुझे पाप लगेगा। इस प्रकार उपहास की बातें करते हुए विदूषक प्रकृति वाले ब्राह्मणों ने उसे नहीं तापने दिया। इस प्रकार आहेत धर्म के उपहास P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * तृतीय परिच्छेद * [71 से खिन्न हुए उस श्रावक ब्राह्मण ने “यदि जिनोक्त धर्म सच्चा है तो अग्नि में पड़ा हुआ यह बालक अक्षत अङ्ग वाला हो, यदि यह जिनोक्त धर्म सच्चा नहीं है और आधुनिक है तो यह अग्नि में पड़ा हुआ बालक भस्मसात् हो जात्रो।" इस. प्रकार कहते हुए उसने सब ब्राह्मणों के हाहाकार करने पर भी उसं बालक को उस जलती हुई आग में एकदम डाल दिया। तदनन्नर सर्वज्ञों के वचनों का उद्योत करने वाली किसी देवी ने उस बालक को कमल पत्र पर रख दिया / वह सुरी पूर्वभव में गुण कर्म वाली होने से श्रामण्य धर्म की विराधना करने से मरकर व्यन्तर देवी हुई। एक समय उसने भगवान् केवली से पूछा कि हे नाथ ! मैं सुग्राप बोधी हूँ कि नहीं ? तब भगवान् ने फरमाया कि तू निश्चय करके सुप्राप बोधी है, परन्तु तुझे विशेष रूप से सम्यक्त्व की उद्भावना में उद्योग करना चाहिए। उस दिन से वह देवी अवधि ज्ञान से देखती हुई ऐसे कार्यों में सावधान रहती है। उसने बालक को अग्नि में पड़ते हुए देखकर कमल के पत्ते पर रख लिया / यह वृत्तान्त देखकर अनेक द्विज आर्हत धर्म में असूया से रहित हो गये। मुग्धभट्ट भी बालक को लेकर अपने घर आया और सारा वृत्तान्त अपनी स्त्री सुलक्षणा को प्रसन्नता पूर्वक सुना दिया। उसने कहा—पति देव ! आपने यह P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ __72 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * विना विचारे काम किया। जिन देव ने तत्व श्रद्धा को ही सम्यक्त्व कहा है। जिनका सम्यक्त्व विशुद्ध है, उनके लिए सुप्राप बौधिक देवता लोग आपस में साधर्मिक भाव से पक्षपाती होते हैं। साधर्मिकों से भी अधिक जिनका प्रेम पुत्र आदिकों में है, सिद्धान्त नीति से निश्चय करके उनके मन में सम्यक्त्व का संशय है / सम्यक्त्व की उद्भावना के लिए तथा होनहार के कारण किसी उपयोग करने वाली शासन देवता ने इस बालक की रक्षा की है। यदि उस देवी की असावधानी से यह बालक जल जाता तो क्या यह आर्हत धर्म असत्य और आधुनिक हो जाता ? क्योंकि इस संसार में साधर्मिकों की सहायता के बिना भी तत्वज्ञानियों के हृदय में अच्छी तरह आर्हत धर्म निरन्तर बसा हुआ है। वास्तव में तत्व के अर्थ में श्रद्धा रखना ही सम्यक्त्व है। यह सम्यक्त्व हृदय के चलाचल होने पर संदिग्ध कैसे बन सकता है ? निश्चय ही दृढ़ धार्मिकों की दृष्टि में आपका यह कार्य बाल चेष्टा है। ऐसा सोचना ही योग्य नहीं, करना तो दूर रहा। - तदनन्तर कौशाम्बी नगरी में समवसरण किये हुए सुरेन्द्रादिकों से अनुगत श्रीमान अजितनाथ प्रभु को पधारे सुनकर सुन्दर अवसर को जानने वाली सुलक्षणा ने अपने पति P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak-Trust .::..
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________________ * तृतीय परिच्छेद * को सम्यक्त्व में दृढ़ करने के लिए कहा। हे आर्य पुत्र ! यदि मेरे इस कथन में आपको विश्वास न हो तो कौशाम्बी नगरी में जाकर भगवान् अजितनाथ प्रभु से पूछ लो। तदनन्तर स्त्री के कथन की प्रमाणिकता के निमित्त वह स्त्री सहित कौशाम्बी नगरी में गया और भगवान् को सर्वज्ञ जानकर गुप्त पदों से पूछा-हे स्वामिन् ! क्या वह वैसा ही है ? भगवान् ने कहा-हां / एवम् , ब्राह्मणों ने कहा-कैसे ? भगवान् बोले तत्वार्थों की श्रद्धा ही सम्यक्त्व कहा जाता है। इस प्रकार भगवान् के वचनों को सुनकर मुग्धभट्ट को विश्वास हो गया और वह मौन हो गया। .. परोपकारी आद्यगणधर ने सभा के प्रतिबोध के लिए भगवान् को वन्दना करके इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! इस ब्राह्मण ने क्या पूछा और आपने क्या उत्तर दिया, यह ब्राह्मण कौन है ? इस प्रकार गणधर के पूछने पर सर्वज्ञ भगवान् ने आदि से लेकर उसका समस्त वृत्तान्त कहा। उस वृत्तान्त को सुनकर बहुत से प्राणी प्रतिबोध को प्राप्त हुए और मुग्धभट्ट ने सम्यक्त्व की स्थिरता में निश्चलता को प्राप्त की। तदनन्तर परमार्थदर्शी मुग्धभट्ट ने वैराग्य से स्त्री सहित दीक्षा ले ली और क्रम से केवल ज्ञान प्राप्त कर परमानन्द पद को प्राप्त हुआ। पति के वियोग में अपने मन को विषय के . P.P.AC. Gurratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 74 ] ___ * रत्नपाल नृप चरित्र * स्मरण में तत्पर जानकर, विमला के मुख से धर्म ज्ञान सुनकर, मन को वश में करके अर्हत्कृत्यों में मन को जोड़कर सुलक्षणा भी परम पद को पहुंच गई। .. - ऊपर कहे हुए दृष्टान्त को सुनकर संसार के चक्कर से यानि जन्म-मरण के चक्कर से उद्विघ्न हुए दुःख और कर्मों के क्षय को चाहने वाले भव्य मनुष्यों को सब प्रकार से मन को जीतने का प्रयत्न करना चाहिए। महात्मा लोग इसी को धर्म का तत्व कहते हैं। इससे बहुत से प्रणी अरुण के उदय होने पर कमलों की भांति प्रबोध को प्राप्त हुए / . तदनन्तर नृपश्रेष्ठ रत्नपाल ने दोनों हाथ जोड़कर अपने प्राच्य कर्मों के विपाक को ज्ञानी से इस प्रकार पूछा-हे स्वामिन् ! महा तेजस्वी मेरे विशाल राज्य को अधम जयामात्य ने किस पूर्वभव के कर्म से छीन लिया और किस कर्म से उसने शृंगारसुन्दरी की विडम्बना की और उस सती ने सारा अपमान किस कर्म से सहन किया ?, कौनसे प्राच्य पुण्य के प्रभाव से मैंने फिर स्पुरायमान राज्यलक्ष्मी वाले राज्य को प्राप्त किया ?, कनकसुन्दरी के कुष्टरोग किस प्राचीन कर्म के उदय से हुआ और गुणमंजरी की अन्धता किस प्राचीन पाप कर्म से हुई ? हे स्वामिन् ! देवताओं को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * तृतीय पच्छेिद * [ 75 दुष्प्राप ऐसा महा रस किस प्राक्तन पुण्य से मुझे प्राप्त हुआ ? इन सब प्रश्नों का उत्तर कृपा करके भगवन् ! मुझे दीजिये / विद्याप्रेमी सुरेन्द्रमुनि कृते रत्नपाल नृप चरित्रे भाषानुवादे श्री अजितनाथ देशना वर्णनो नाम तृतीय परिच्छेद समाप्तः // P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gurf Aaradhak Trust
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________________ Sen चतुर्थ परिच्छेद WWE DPIN000 नपाल राजा के पूर्व परिच्छेदोक्त 7 सात प्रश्नपूछने पर 'श्रेष्ठ केवल ज्ञान के प्रकाश में देखा है समस्त संसार जिन्होंने ऐसे सर्वज्ञ भगवान् राजा से पूछे हुए प्रश्नों की व्याख्या स्पष्ट रूप से सभा में कहने लगे। वह इस प्रकार है इसी भरत क्षेत्र में रत्नपुर नामक नगर है। उसमें शूरवीर राजा राज्य करता था जिसका नाम रत्नवीर था। पापविमुख कल्याणकारी उचित विनय वाली श्रीदेवी आदि नव उसकी प्रिय रानियाँ थीं। उसी नगर में आजन्म दारिद्रय के दुख से जले हुए दिल वाले दो महाजन सिद्धदत्त और धनदत्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद * [77 नाम वाले रहते थे। उन दोनों ने लक्ष्मी को कमाने के लिए बहुत उद्योग किये, परन्तु किसी प्रकार सम्पन्न नहीं हुए। क्योंकि लक्ष्मी भाग्यानुसारिणी है / एक दिन समान दुख वाले वे दोनों शोक से निःश्वास पूर्वक यह सोच रहे थे कि हमारा निर्वाह किस प्रकार होगा ? इतने में किसी सज्जन ने कहा कि तुम लोग आशासिद्धि नामक देवी की आराधना लंघन पूर्वक करो तो वह देवी निश्चय रूप से तुम्हारे दारिद्रय का नाश कर देगी। इस प्रकार उसके वचन पर विश्वास कर उन दोनों ने एकाग्र भाव से अपनी इष्ट सिद्धि के लिए 20 उपवास पूर्वक प्राधिना की। तब उस देवी ने प्रत्यक्ष होकर कहा-हे ! हमारे पास क्या देने योग्य या पाने योग्य है जो इस प्रकार मेरे मन्दिर में लंघन कर रहे हो ? उस समय उन दोनों ने विनय पूर्वक कहा-हे / अम्ब ! हम लोग दारिद्रय से दुखी हुए तुम्हारे शरण आये हैं। माता की गोद को शौभित करके बालक चाहे जो मांग / लेता है और वह उसे प्रसन्नता से देवे तो वहां क्या देने .. योग्य, पाने योग्य हैं ? हे अम्ब ! उसी प्रकार हम भी लंबन करके तेरे से यथेष्ट मांगते हैं। तू भी सन्तान की वत्सलता से निश्चय ही देगी। उनके इन वचनों से प्रसन्न हुई देवी ने कहा—हे वत्सों ! तुम लक्ष्मी और विवेक में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 78 ] रत्नपाल नृप चरित्र * से एक को मांग लो। एक आदमी को दो वर नहीं दूंगी। तब कर्मानुसारिणी बुद्धि वाले लोभी सिद्धदत्त ने केवल इस लोक के प्रयोजन को सिद्ध करने वाली लक्ष्मी को मांगा / कर्मानुभाव से अल्प लोभ वाले सुबुद्धिमान् शुभ प्रायति 'भविष्य' को चाहने वाले धनदत्त ने उस देवी से विवेक मांगा। जिसकी सत्ता में जैसा वेद्य कर्म शुभाशुभ होता है, वैसी ही शुभाशुभ बुद्धि उत्पन्न होती है। कहा है: TR... यथा यथा पूर्व कृतस्य कर्मणः फलं निधानस्य मिवोपतिष्ठते / . तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता प्रदीपहस्तेव मतिः पवर्तते // 1 // . अर्थात्-जैसे 2 पूर्व किये हुए कर्मों का फल खजाने में रहे हुए की तरह हाजिर होता है, तैसे 2 उनकों प्रतिपादन करने में उद्यत हुई बुद्धि हाथ में रहे हुए दीपक की तरह प्रवृत्त होती है। .... . . तदनन्तर उनके मांगे हुए वरदानों को "एवमस्तु" स्वीकार करके देवी अन्तर्धान हो गई। वे भी प्रसन्न होकर अपने अपने घर जाकर पारणा करने लगे। एक दिन देवी के वरदान से प्रेरित हुआ गुरूपरम्परागत योगी मध्याह्न के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद 2 समय उसके घर आया। सिद्धदत्त ने अत्यन्त भव्य अतिथिसत्कार करके उसकी खूब सेवा की। उस योगीराज ने उस को काकड़ी के बीज दिये और कहा कि मैंने इनको सिद्ध मन्त्र से वासित किये हैं। हे वत्स ! विधि पूर्वक बोने से ये तत्काल उग जाते हैं। दो घड़ी में बेलें सारे मकान पर छा जाती हैं और उन वेलों पर तत्काल चारों तरफ फल भी पैदा हो जाते हैं। वे फल अनोखे माधुर्य से अमृत को भी मात करते हैं। इनके खाने से भूख-प्यास की पीड़ा शान्त होती है। सन्निसात और सब प्रकार की वात, व्याधि तथा नेत्र-रोग, अठ्ठारह प्रकार के कुष्ठरोग शान्त होते हैं। यह कह कर योगी चला गया। तदनन्तर सिद्धदत्त ने अपने घर की बाड़ी में कितनेक बीजों को विधि पूर्वक बो दिये / उसी समय बेलें सारे घर - में विस्तृत होकर छा गई और फल भी उनमें लग गये। . क्योंकि प्राप्तवाणी कभी मृषा नहीं होती। भयंकर रोग से ... पीड़ित धनवान् लोग सौ, हजार तथा लाख रुपये देकर बड़े आदर से सिद्धदत्त से फल ग्रहण करते हैं। लोभ के कारण रोगियों से यथेष्ट ग्रहण किये हुए धन से सिद्धदत्त अल्प काल में ही धनवान् बन गया और जैसे 2 उसके घर में धनं बढता गया तैसे 2 उसके हृदय में उसकी स्पर्धा से लोभ भी बढता P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ n 80] * रत्नपाल नृप चरित्र के ainik गया। जैसे 2 लाभ होता रहता है तैसे 2 लोभ अधिक से अधिक बढता रहता है। पुराने समय में दो मासे सोने का चाहने वाला ब्राह्मण करोड़ सुवर्ण से भी तृप्त नहीं हुआ। सिद्धान्त में वैसा ही कहा है:- जहां लाहो तहां लोहो लाहा लोहे पवढढई। दो मासं कणयकज कोडिऐऽवि न निट्ठिअम् / / 1 / / आय आज भी कहा है / तृष्णा खानिरगाधेयं दुष्पूरा केन पूर्यते / / या महद्भिरपि क्षिप्तैः पूरणैरेव खन्यते // 1 // रा केन पूर्यते / / 1. अर्थात्-यह तृष्णा रूपी खान अगाध है तथा दुप्पूर है। किससे भरी जा सकती है ? जो बड़े पूरणों के प्रक्षेपों से भी खुदती रहती है। एक दिन लोभाक्रान्त सिद्धदत्त रात्रि के पिछले प्रहर में जगा हुआ मन में विचारने लगाइस प्रकार के लाभों से मेरी इच्छा के अनुसार वित्त कैसे संचित होगा ? क्योंकि घड़े कभी ओस के पानी से कहीं नहीं भरे जाते। इस कारण से बे रोक टोक धन की प्राप्ति ' के लिए मैं इस समय जहाज में यात्रा करू / क्योंकि अश्व के व्यापार से, जहाज के व्यापार से तथा पत्थर के व्यापार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद - [81 से लक्ष्मी अधिक बढ़ती है, ऐसा मन में विचार कर वह लोभी प्रातःकाल में उठा और परद्वीप के योग्य करियाणा से वाहण को जल्दी भर दिया। सिद्धदत्त के शुद्ध मन और वाणी वाला एक बाल्यकाल का विमल नामक मित्र पारिणामिक बुद्धि है। उसने वहां आकर सिद्धदत्त से कहा-हे. बन्धु ! दान और भोग का प्रवर्तक धन तो दूर रहा / पहिले तेरे घर में एक दिन के लिए भी भोजन नहीं था, इस समय पुण्य से इतना धन हो गया तो फिर क्यों प्राणान्त कष्ट देने वाले पोत व्यापार खुद लोभ से जारहे हो ? निर्धन लोग प्राणान्त कष्ट देने वाले पोत व्यापार में जाते हैं। उनके लिए तो जाना उचित है। क्योंकि वे लोग 'दारिद्रय से मरण को श्रेष्ठ मानते हैं।' अन्यत्र भी कहा है: उत्तिष्ठ क्षणमेक मुबह सखे ! दारिद्रयभारं मम।. श्रान्तस्तावदहं चिराच्च शरणं सेवे त्वदीयं सुखम् // इत्युक्तोधन वर्जितेन सहसा गत्वा श्मसानं शवो। ... दारिद्रयान्मरणं परं सुखमिति ज्ञात्वो स तूष्णीं स्थितः // 1 // किसी निर्धन ने जाते हुए शव 'मुर्दे' से कहा-हे सखे ! एक क्षण के वास्ते उठ खड़े होमो और मेरे दारिद्रय P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ___ 82] रत्नपाल नृप चरित्र * / के भार को उठाओ। क्योंकि में बहुत थक गया हूँ और - तेरी शरण में आया हूं, तेरे सुख को सेवन करना चाहता हूँ। इस प्रकार निर्धन से कहा हुआ शव एकाएक शमशान में जाकर "दारिद्रय से मरण श्रेष्ठ है" ऐसा सोचकर चुप रहा। जैसे तैसे सुख दुख से अपना निर्वाह करने वाले बुभुक्षित लोग दूसरों के धन को लेकर पोत-यात्रा में भले ही जांय / परन्तु 'धन सम्पन्न' तुझे नहीं जाना चाहिए। जो धनी. लोग ऐसे क्लेशकारक कर्म में लगे रहते हैं, वे भोग और त्याग से विमुख हुए निश्चय ही भाग्य भरोसे कार्य करने वाले हैं। विद्वानों ने शास्त्र में उदर को दुष्पूर अवश्य कहा कहा है, तथापि वह इष्टान्न के भोजन से दो प्रहर तक संतुष्ट रहता है। असंख्य सुवर्ण तथा रत्न आदि से और मनोहर भोजन से लुब्ध प्रकृति मन तो क्षण भर भी कभी सन्तुष्ट नहीं रहता। घर में चाहे असख्य मणि-मुक्ता और स्वर्ण की राशिये हों, तो भी तुष्टि और पुष्टि तो मनुष्यों की खान पान से ही होती है। ऊपर कहे हुए कारण से निर्वाह के योग्य धन के घर में रहते मूर्ख लोग व्यर्थ ही क्यों क्लेश उठाते हैं ? अत्यन्त अद्भुत धन की प्राप्ति होने पर भी लोभ का अन्त तो कहीं होता ही नहीं। धनहीनः शतमेकं सहस्र शतवानपि / सहस्राधिपतिर्लक्षं कोटि लक्षेश्वरोऽपि च // 1 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ॐ चतुर्थ परिच्छेद * [83 कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं नरेन्द्र श्चक्रवर्तिताम् / चक्रवर्ती च देवत्वं देवोऽपीन्द्रत्व मिच्छति // 2 // इन्द्रत्वेऽपि च संप्राप्ते यदीच्छा न निवर्तते। मूले लघीयां तल्लोभः शराव इव वर्द्धते // 3 // - अर्थात्-धनहीन पुरुष सौ रुपये चाहता है, सौ रुपये वाला हजार रुपये चाहता है, हजार वाला लाख, लखपति करोड़, कोटिपति नरेद्र पद को, नरेन्द्र चक्रवर्ती पद को, चक्रवर्ती देवपन को, देवता इन्द्र पद को चाहते हैं। इन्द्र पद के मिलने पर भी इच्छा निवृत्ति नहीं है क्योंकि यह लोभ का महात्म्य है। आरम्भ में अल्प होर हुआ भी सराब 'वेल' की भांति बढता है। बड़ा भारी लाभ होने पर भी लोभ घटता नहीं। मात्राहीन भी जीवित रहता है। मात्रा समधिक कैसे हो सकती है ? _ अति लोभ मनुष्यों के लिए निश्चय करके महान् अनर्थ का कारण होता है। जैसे पहिले शृंगदत्त श्रेष्ठी को अप्रशस्त रूप में हुआ था। 'हे मित्र ! जो आपने लोभ का * उदाहरण शृंगदत्त कहा है, वह कौन था ?' इस प्रकार सिद्धदत्त के पूछने पर उस मित्र ने सारा वृत्तान्त कहना शुरू किया। शृंगदत्त की कथा इस प्रकार है P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 24) * रत्नपाल नप चरित्र * नाना पुरुष रत्नों की उत्पत्ति में रोहणाचल के समान रोहण नामक नगर में महाधनी शृंगदत्त नामक महाजन था / समस्त उत्तम मनुष्यों से शोभित उस नगर में नील के सदृश मलिनात्मा उस शृंगदत्त को विधि ने उस नगर के दृष्टि दोष को दूर करने के लिए ही मानो बसाया है। बत्तीस कोटि सुवर्ण का मालिक होने पर भी वह लोभी लन्ना को छोड़कर साधारण कार्यों को भी स्वयं करता था। उसके चार युवा . पुत्र हैं और वे विनय शील सम्पन्न हैं। चार ही यौवन के भार को प्राप्त हुई पुत्रवधू हैं। वह शृंगदत्त व्यवहार और आचार में धन व्यय करने में डरपोक दिल वाला था। इसी कारण वह किसी कार्य के बहाने से घर में अपने पुत्रों को ठहरने नहीं देता था। वह "कहीं मेरा धन खर्च हो जायगा" इस भय से मन्दिर में, पौषधशाला में, विवाह में, चौराहे में और समुदाय में कहीं भी नहीं जाता था। यदि कोई भिखारी मेरे घर में आवेगा तो पैसा खर्च होगा, इस भय से वह द्वार के दोनों कपाटों को देकर सांकल दे दिया करता था। याचकों के मांगने पर वह निष्ठुर गालियाँ देता था। कोई भिखारी जवरन् वर में आ जाता तो गला पकड़कर धक्का दे देता था। वह सदा धन की चिन्ता से हृदय में दुखी हुआ, पृथ्वी खनता हुआ, गर्दन को शिथिल कर गाल P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद के [85 पर हाथ दिये रहता था। इस प्रकार वह प्रायः छ' दानों को देता था, तो भी अदाता प्रसिद्ध था। क्योंकि यश पुण्य से ही मिला करता है। याचकों के लिए द्वारपाल की तरह वह याचकों को द्वार में घुसने नहीं देता था। और असूया से पुत्रबधुओं को भी घर से निकलने नहीं देता था। इस संसार में विधि ने दाताओं के गुणों को प्रकाशित करने के लिए ही मानो राजा, चोर और धनवानों का उस कृपण को कोषाध्यक्ष बनाया हैं। इस पूर्वोक्त प्रसंग पर नीति शास्त्र में जो कहा है, वह इस प्रकार है: विना कदयं दाताऽपि नाभविष्यत् प्रसिद्धिभाक् / निशां विना कथं नाम वासरोऽयमितीष्यते // 1 // - अर्थात्-बिना कंजूस के दाता प्रसिद्ध नहीं होता, रात्रि के बिना “यह दिन है" ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? अतः संसार में दानी-अदाता, धनी-निर्धन, लाभहानि, छोटा-बड़ा आदि भाव अपेक्षाकृत हैं। धीरे धीरे उसका घर मलेच्छ के घर की भांति अस्पृश्य, चांडाल के 1. धक्के धुमे, थप्पड़ आरि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 86 ] * रत्नपाल नृप चरित्र क कूप की तरह त्याज्य, गली के पानी की तरह अश्लाघ्य हो गया। अन्यत्र भी कहा हैः- किंशुके किं शुकः कुर्यात् फजितेऽपि बुभुक्षितः // अदातरि समृद्धऽपि विदधाथनः किमु // 1 // अर्थात्-भूखा तोता फले हुए टेसू पर क्या करे ? उसी प्रकार समृद्धिमान् के अदाता होने पर याचक लोग क्या करें ? अर्थात् कुछ नहीं कर सकते। ... .. | उस कृपण सेठ शृंगदत्त के घर में उसको जवान पुत्रहुए आपस में सखी भाव रखती हुई कैदखाने में डाली हुई की सदृश कष्ट से समय विताती थीं। एक दिन मूर्तिमान् पाप की तरह उस सेठ को द्वार पर देखकर कोई योगिनी गुप्त रूप से आकाश मार्ग से उसके घर के भीतर आ गई। अचानक उसको आई हुई देखकर संभ्रम के साथ सब पुत्र-बहुएँ उसके सामने उठ खड़ी हुई और समीप जाकर कहने लगीपूर्वभव का शत्रु वह हमारा ससुर क्या आज मर गया ? जो आप हमारे पुण्य से आकृष्ट हुई यहां भीतर आई हो ? तब वह योगिनी बड़े अभिमान से कहने लगी. कि नाना मन्त्र, औषधियों को जानने वाली हमारे लिए जगत में कोई. कार्य दुःसाध्य नहीं तथा कोई स्थल दुर्गम नहीं। तदनन्तर उन ___.. उसके P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ पच्छेिद * [87 पुत्र-बहुओं ने उसको कला और कौटल्य में चतुर जानकर नाना प्रकार के अतिथि सत्कार से प्रसन्न करके कहा---हे माता ! हम बालपन से लेकर बन्दीखाने में पड़ी हुई हैं। इस समय हम आदि योगिनी स्वरूप आपकी शरण में हैं। आर हम पर प्रसन्न होइये / हे सब कलाओं में चतुर ! आप हमका आज विविध आश्चर्य से भरी हुई इस पृथ्वी को दिखाइये। इस प्रकार भक्ति युक्त बहुओं के वचन को सुन कर वह योगिनी बहुत प्रसन्न हुई और उनको साधार आकाशगामिनी विद्या दी। / तदनन्तर वे बन्धन से मुक्त हुई की तरह चित्त मे बहुत प्रसन्न हुई / वे चारों बहुए सब प्राभूषणों से सज्जित होकर रात्रि में घर के सब लोगों के सोजाने पर वाड़े में रहे हुए बड़े काष्ठ पर चढ़कर स्वर्ण दीप में चली गई। वहां किसी एकान्त स्थान में उस काष्ठ को रखकर कौतुक को देखने की उत्कण्ठा से देवताओं के क्रीड़ा नगर में वे घुस गई। वहां उन्होंने सुन्दर श्रृंगार किये हुए इन्द्रादि देवताओं को खेलते हुए और अप्सराओं के मनोहर नृत्य को स्वच्छन्दता से देखा / फिर रात्रि के अन्तिम प्रहर में उसी काष्ठ पर चढकर अपने घर आकर यथा स्थान बहाने से सो गई। यौवन से उद्धत स्वेच्छाविहार में लगी हुई उनको किसी ने P.P.Ac: Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 88] * रत्नपाल नृप चरित्र * निरन्तर आते जाते नहीं देखा। जो लोग अपनी बुद्धि से समुद्र के जल को पलों में माप लेते हैं, वे भी स्त्री के गहन चरित्र को अच्छी तरह से नहीं जान सकते। किसी विद्वान् ने कहा है: अश्व'लुतं माधव गर्जितं च स्त्रीणां चरित्रं भवितव्यतां च / र अवर्षणं चापि च वर्षणं च देवा न जानन्ति कुतो मनुष्याः // 1 // - अथाह समुद्र के पार को पा सकते हैं, परन्तु स्वभाव से कुटिल स्त्रियों के दुश्चरित्र का कोई पार नहीं पा सकता। और भी कहा है:--- विहि विलासि आण खल भापि प्राण तह कूट महिला चरित्राण . मन वंछिप्राण पारं जाणइ जइ होइ सम्वन्नू // छ अर्थात् विधि के विलास का, दुष्ट के भाषित का, कूट महिला के चरित्र का, मनोवांछितों का पार यदि सर्वज्ञ हो तो समझ सकता है / एक दिन उस सेठ के कुशल नामक नौकर ने उस बड़े काष्ठ को अन्योन्य स्थान में नित्य देखकर कौन इसको इतना चलाता है ? आज मैं इसको देखूगा। यह निश्चय करके रात्रि में चुपचाप देखते हुए उसने वधू के सब वृत्तान्त को जान लिया। ये सदा. कहां जाती हैं ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुथ परिच्छेद * [81 इस वृत्त को जानने की इच्छा वाला और कौतुक को देखने का अभिलापी वह रात्रि में उस काष्ठ के गहर में चुपचाप छुप रहा। वे बहुएँ सदा की भांति उस काष्ठ पर चढ़कर उस रात भी आकाश मार्ग से स्वेच्छा पूर्वक विहार करके स्वर्ण द्वीप से घर आ गई / छुपा 2 वह भी यथा स्थित उनका सारा वृत्तान्त जानकर दो स्वर्ण की ईटों को लेकर वहां आकर सो गया / . उनके उस अनोखे चरित्र से विस्मित हुआ वह नौकर सोचने लगा कि नारी अबला और भोली, तथा विष नधुर कहा जाता है। मैं तो यह मानता हूँ कि ये विपरीतता से उत्पन्न हुए लक्षण का दृष्टान्त है / भोली स्त्रियों से भी बड़े बड़े चतुर लोग ठगे जाते हैं। अबलाओं से बड़े 2 शूरवीर जीते जाते हैं। ये स्त्रियें "द्वार पर बैठा हुआ सेठ हर समय हमारी रक्षा करता है" इस ईर्ष्या से ही अपनी विद्या से सर्वत्र स्वेच्छा पूर्वक विहार करके घर आ जाती हैं / उच्छृङ्खल मन वाली स्त्रियों के लिए बाहरी रक्षा विधान व्यर्थ है। क्योंकि लोक में भी ऐसा कहा जाता है-हे मूढ ! स्त्रियों का मन नहीं बाँधा गया, केवल कम्बल बाँधने से क्या ? उनकी स्वेच्छा प्रवृत्ति में बिचारा कम्बल क्या बल कर सकता है 1. किसी महाकवि ने कहा है: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ .10] * रत्नपाल नप चरित्र * यन्यस्ताऽपि पितामह प्रहर के हा ! निया॑मन्दोः करै। . निर्यात्यर्क करै रुपैति च नमो नारी चरित्राय तत् // 1 // / अर्थात् समुद्र की तरंगों के साथ धूल में खेलती हुई लक्ष्मी को देखकर यह चंचल है इस विचार से विष्णु ने लक्ष्मी को एक स्तम्भ वाले कमल के कोने में रख दिया, इस प्रकार पितामह के पहरे में रक्खी हुई भी लक्ष्मी चन्द्रकिरणों से बाहर जाती है और सूर्य-किरणों से अन्दर आती है। इस कारण नारी चरित्र को नमस्कार है। स्त्रियों को असत् आचार के कुमार्ग से कुल ही अर्गला बन कर अथवा दुर्गति के दुख का भय ही निवृत्त कर सकते हैं / इस प्रकार विचार करता हुआ वह नौकर बहुत समय से जगा हुया होने पर भी धन के मिलने से गर्वित हुआ सोता रहा। दिया। तब सेठ ने विचारा कि यह नौकर पहिले तो खुद समय पर जग जाया करता था और बोलाने पर जल्दी बोलता था। आज क्या, यह जागता है अथवा जगा हुआ भी क्यों नहीं बोलता? क्या यह आज किसी नये धन के मिलने से गर्वित हो गया है ? अथवा किसी ने इसको ऊंचा , P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद * नीचा वचन कहकर रुष्ट कर दिया है ? अथवा यह बीमार हो गया है ? इन बातों का निर्णय करने की इच्छा वाले उस कपटी धूर्त महाजन ने अपने हाथ से उसे उठाकर अश्रपूर्ण नेत्र से गद्गद् स्वर से कहा। तू मेरे चारों पुत्रों से भी अधिक प्रेम-पात्र पंचम पुत्र है / आज तेरी यह कैसी हालत है ? हे वत्स ! कहो, तू ऐसा क्यों हो गया ? उस श्रेष्ठी की इस प्रकार स्नेह भरी वाणी से पिघले हुए दिल वाले उस नौकर ने उन बहुओं का जो वृत्तान्त देखा था, वह सब सेठ को कह सुनाया। उस अनोखे हाल को सुनकर स्क्यं देखने को उत्सुक हुए सेठ ने उस दिन को वर्ष के समान माना। तदनन्तर 'समीप है मरण काल.. जिसका' ऐसा वह वृद्ध कृपण सेठ नौकर की तरह रात्रि में छिपकर उस काष्ठ के कोटर में प्रविष्ट होकर बैठा रहा / उस रात में भी पहिले की तरह वे पुत्रवधुएँ उस काष्ठ पर चढकर आकाश मार्ग से स्वर्ण द्वीप में जाकर उस काष्ठ को छोड़कर नगर में गई। उस समय लोभी उस सेठ ने कोटर से बाहर निकल कर अनेक सोने की ईटों से उस काष्ठ के कोटर को भर दिया। प्राप्त हुए द्रव्य के उपाय से प्रसन्नचित्त वह सेठ, वधू के आगमन काल में पहिले की भांति कोटर में छिप रहा / अपना काम कर वे स्त्रिये वहां आकर शीघ्र उस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ - रमपाल नृप चरित्र काष्ठ पर. चढकर समुद्र के ऊपर आकाश मार्ग को अपने नगर को ओर चली। वह काष्ठ बहुत भार होने से मार्ग में अत्यन्त धीरे 2 चला, इस कारण सूर्योदय को नजदीक जानकर दुखी हुई वे आपस में बातें करने लगीं। हे बहिन ! यह काष्ठ दुर्वह है। अतः समुद्र में आज. इसे छोड़ दें, कल दूसरा हल्का काष्ठ ले लेंगी। उस समय कोटर में रहे हुए सेठ ने बहू के वचन को सुनकर "मुझे इस काष्ठ के कोटर में बैठा हुया न जानकर कहीं समुद्र में न डाल. दें", इस विचार से भयभीत हुए सेठ ने कहा- मैं तुम्हारा ससुर इस काष्ठ के मध्य में हूँ। हे बहुओ ! इसलिए इस काष्ठ को समुद्र में मत डालना। बहुओं ने अपने ससुर को काष्ठ के मध्य में स्थित जानकर क्षोभ को प्राप्त किया। फिर पारिणामिक बुद्धि से उन्होंने आपस में ऐसा विचार किया। इस दुरात्मा ने अपना सारा दुश्चरित्र जान लिया है। अब यह यदि जीवित ही घर चला गया तो निश्चय करके अपने शुभ के लिए नहीं होगा। अतः सांप से भरे घड़े की तरह इसे समुद्र में डाल देना चाहिए। दूसरा ऐसा अवसर देखने में नहीं आयगा, ऐसा विचार कर उन्होंने उसको अपने मूर्तिमान् दुखी की तरह समुद्र में गिराकर और घर आकर अपनी . इच्छानुसार दान और भोग से घर में सुख पूर्वक रहने लगीं। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद . [63 महा. लोभ से बहुत सी स्वर्ण की ईटों को संग्रह करके बत्तीस स्वर्णकोटि का मालिक वह कृपण अपने जन्म से जैसे भष्ट हुया, उसी प्रकार हे मित्र ! प्राणान्त कष्टकरी इस जहाजी व्यापार में अत्यन्त लोभ से प्रवृत्त तू अपनी सन्तान और आयु से भट मत हो। तेरे घर में सात पीली तक भोगने योग्य धन है / हा ! बड़ा कष्ट है कि तू इतने धन का भी आदर नहीं करता / हे महाशय ! अपने घर में रहा हुआ तू धन से धन को बढ़ाओ और दान और भोग को करता करता हुया अपने जन्म को सफल कर। इस प्रकार मित्र ने उसे विविध युक्तियों से समझाया, परन्तु ज्ञान के न होने से अथवा समझ की कमी के कारण उसने उन हितकारक वचनों को नहीं माना। तदनन्तर अतितृष्णा से चंचल वह मंगल का कौतुक करके जहाज में बैठकर किसी स्थान को चला गया। वहां बहुत काल तक व्यवहार करने से उसे अतुल धन की प्राप्ति हुई। तब अपने परिवार के साथ अपने नगर की ओर लौटा। इच्छानुसार धन मिलने से हृष्ट वह आरहा था कि मार्ग में अचानक दुर्दैव से प्रेरित आंधी से समुद्र क्षुभित हुआ। उस समय समुद्र में भयंकर बड़ी 2 लहरें उठने लगीं। जैसे शमशान में वैताल उठते हों, उन तरंगों डांवाडोल हुआ P.P: Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ . 14.] * रत्नपाल नृप चरित्र * ... जहाज कभी स्वर्ग जाने को ऊंचा हो रहा था, कभी पाताल ' में प्रविष्ट होने के लिए नीचे गिर रहा था। सिद्धदत्त आदि - ने अपने जीवन की आशा छोड़कर जहाज को हलका करने के लिये तमाम पण्य (सामान) समुद्र में डाल दिया। हलके हुये जहाज को वायु ने रूई की तरह उठाकर होनहार के योग से किसी शून्य द्वीप में जा पटका। उसकी. तीर को पाकर जीवन की आशा को प्राप्त हुए सिद्धदत्त आदि जहाज से नीचे उतर गये। वहां रहते 2 उनके साथ रही हुई भोजन सामग्री समाप्त हो गई। तब सिद्धदत्त ने उन ककड़ी के बीजों को समुद्र के किनारे पर बोये / तत्काल ही वेलें निकलीं, बढी और फली। उन फलों को खाकर लोग सुखी और प्रसन्न रहने लगे। / एक दिन एक जलमानुषी समुद्र से निकलकर डरती हई धीरे 2 उन फलों को खाने के लिए आई। उसने हाथ में एक रत्न लेकर दिखाया। उस धूर्त सिद्धदत्त ने फल खाती हुई उसको रोक दिया / तब देवी वरदान के माहात्म्य से उसने जान लिया कि यह मनुष्य फलों के मूल्य. में ये रत्न लेना चाहता है। यह विचार कर वह जलमानुषो समुद्र में प्रविष्ट होकर अनेक प्रकार की मणियें जाकर फलों के लोभ . से सिद्धदत्त को दे दी। तब उस सिद्धदत्त ने उतने ही फल : P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ पच्छेिद * [65 दे दिये। इस तरह सदा रत्नों को लेकर वह फल देने लगा। यों करते करते उसके पास करोड़ों रत्न हो गये। मिले हुए उन करोड़ों मणि रत्नों से जहाज को भरकर प्रसन्न मन से सिद्धदत्त अपने नगर में सुख से आ पहुँचा। उस जहाज में करोड़ों रत्नों को देखकर रत्नवीर राजा ने लोभ से जब्त करने की आज्ञा दे दी। यह देखकर सिद्धदत्त ने मन में सोचा कि मैंने प्राणों को तृणवत् मानकर समुद्र यात्रा करके बड़े कष्ट से धन कमाया है, वह सब वृथा हो गया। यदि माता विष दे दे, पिता पुत्र को अगर बेच दे तथा राजा धन हरण कर ले तो वहां क्या प्रतीकार हो सकता है ? * इस दुखी सिद्धदत्त के निराश होने पर तेहरवें 13 दिन स्वयं राजा ने अपनी आज्ञा वापिस लेली, तष सिद्धदत्त प्रसन्न हा। जहाज से उस मणिरत्नों को उतार कर और उन्हें बेच कर 66 छासठ कोटि सुवर्ण का मालिक उस नगर में वह एक ही हुआ। यह अज्ञान किसी महाजन में मिलता है कि अपनी लक्ष्मी से गर्वित हुआ वह ज्ञान को घास के तुल्य भी नहीं मानता और किसी धर्म कार्य में कानी कौड़ी भी खर्च नहीं करता तथा अपने कुटुम्बियों का उपकार भी नहीं करता। बड़ों को, अरिहन्त भगवान् को तथा गुरु को वन्दना भी नहीं करता / एकमात्र धन में ही चित्त लगायें P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * रत्नपाल नृप चरित्र * स्वजन्म को विता देता है / वह सिद्धदत्त निविवेक के कारण विवेक, विनय आदि से रहित बड़े लोगों की दृष्टि से गिर गया और आंखों पर वन्धी हुई पट्टी की तरह बुरा लगने लगा। : न देवी के वरदान के प्रभाव से अच्छे विवेक वाला 'धनदत्त सदा जिन भगवान की पूजा करता है / वह श्रद्धालु 'सदा सद्गुरु से धर्म को सुनता है। बड़े काम में भी किसी के साथ कलह नहीं करता। प्राणातिपात से विरत हुआ वह कभी असत्य भाषण नहीं करता और परस्त्री से पराङ्मुख वह अदत्त को कभी ग्रहण नहीं करता। वह विशुद्ध मति सातों व्यसनों को दूर रखता है। वह बड़े मनुष्यों से मिलता है और उनके उपदेशों को ग्रहण करता है ! दीन दुखियों पर दयालु तथा परोपकार में तत्पर रहता है / वह अल्प.धन वाला भी उदात्त आत्मा है। पान को यथोचित दान देता है। पर कार्य को करने में कुशल, पर सम्पत्ति में कभी द्वेष करता ही नहीं। स्वजन्म को अच्छे कार्यों से सफल बनाता है। सद्विवेक के प्रकट होने से विनय आदि से सुशोभित अन्य गुणों से भी अलंकृत वह शिष्टजनों में मान्य हुअा। एक दिन उस नगर में कोई विदेशी बनिया श्राराध्य व्याधि से ग्रस्त हुश्रा रात्रि में शून्य मठ में मर गया / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद है [ Eve वहां उसका संस्कार करने के लिए सब महाजन इकट्ठे हुए तथा विवेकी धनदत्त भी वहां गया। निर्विवेकी धन के उन्माद से आपे से रहित सिद्धदत्त उन लोगों के बुलाने पर भी नहीं गया। उस शव को लेकर सब महाजन शमसान ___ में गये परन्तु "अज्ञात कुल-शील' उसको कोई अग्नि नहीं देता। तब सब महाजनों ने विचार करके धनदत्त से कहा"हे सौम्य ! तू इसका अग्नि-संस्कार कर / उन महाजनों को राजा की तरह अनुल्लंघ्य शासन मानकर बुद्धिमान् धनदत्त ने उनका कथन स्वीकार किया। धनदत्त अग्नि-संस्कार के ज्ञान से निश्चिन्त था। सब महाजन दूर जाकर बैठ गये / शव को चिता पर रखकर उसने उसका वस्त्र उघाड़ा तो उसकी कमर में एक गांठ के अन्दर 5 रत्न देखे / उसके सिवाय उन रत्नों को किसी दूसरे ने नहीं देखा था। तो भी उसने विचारा कि उत्तम मनुष्य को अदत्त कभी नहीं ग्रहण करना चाहिए। इस हृदय के विवेक से उस निस्पृही ने उन : रत्नों को नहीं लिया। उसने महाजनों को बुलाकर पांचों ही रत्न दिखा दिये। उसके निर्लोभ से विस्मित हुए सब महाजनों ने उसे कहा-"हमारे कहने से तू ही इन अमूल्य रत्नों को ले ले। इस प्रकार तुझे अदत्ता-दान-दोष नहीं लगेगा।" फिर उसने विचारा कि इस प्रकार के अनाथ धन का राजा स्वामी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 18] * रत्नपाल नप चरित्र होता है, अन्य नहीं। इस सबुद्धि के उदय से उसने उन रत्नों को नहीं लिया। तब महाजनों ने राजा के पास जाकर धनदत्त का सारा वृत्तान्त सुनाकर रत्न दे. दिये। उस. राजा ने उसकी निर्लोभता देखकर प्रसन्नता से वे रत्न धनदत्त को दे दिये / राजा के देने पर धनदत्त ने वे रत्न प्रसन्नता से ले लिये और पांच स्वर्णकोटि में उनको बेच दिये। .. - पूर्व पुण्य से प्रेरित हुआ सुदिन जो शुभ करता है, मनुष्यों का वैसा शुभ तो माता-पिता, भाई तथा स्वामी भी नहीं कर सकता। उसी प्रकार दुष्कर्म से उपस्थित कुदिन जैसा घोर कष्ट देता है, वैसा कष्ट रुष्ट हुए व्याल-वैताल भी नहीं दे सकते। किसी तिथि में समुद्र भी बढ़ता है और किसी तिथि में वही समुद्र घटता है। सुदिन और कुदिन की की हुई विशेषता साफ नजर आती है। एक पक्ष में चन्द्रमा वृद्धि को प्राप्त होता है. और दूसरे पक्ष में वही घटता है। यह सुदिन और कुदिन का फल देवताओं में भी दिखाई पड़ता है तो मनुष्यों की क्या गिनती ? 'व्यापार व्यवसाय आदि और उससे भी बड़े काम को जो मनुष्य करना चाहता है वह पहिले अपने सुदिन कुदिन की परीक्षा करता है। इस प्रकार सोचकर उसने अपने सुदिन तथा कुदिन की जाँच करने के लिए बड़ा व्यापार करने की इच्छा वाले उसने P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ॐ चतुर्थ परिच्छेद * एक बकरी खरीदी। जैसे अल्प वृष्टि से अल्प ही कीचड़ होता है, अल्प आहार से अल्प ही विसूचिक होती है, थोड़े ऊचे स्थान से गिरने पर थोड़ी ही पीड़ा होती है। उसी प्रकार कुदिन में अल्प व्यवहार से अल्प ही हानि होती है। फिर उसने उस बकरी को चरने के वास्ते बाहर छोड़ी / उसी दिन उस बेचारी बकरी को भेड़िया- खा गया। इस प्रकार तीन दिन तक बकरी को खरीद 2 कर उसने चरने के लिए वाहर छोडी, परन्तु एक भी वकरी लौटकर वापिस उसके - घर नहीं आई। तब उसने विचारा कि अभी मेरे दिन अच्छे नहीं हैं। यह सोचकर उसने फिर कोई कार्य प्रारम्भ नहीं किया। ... कितनेक दिन बीतने पर फिर उसने बकरी खरीद कर चरने के लिए बाहर छोड़ी। उस दिन उसके दो बच्चे पैदा हुए। इस प्रकार दिन की परीक्षा करने वाले उसने जो * जो वकरी खरीदी उस 2 बकरी के बच्चा पैदा होता था। यों करते 2 उसके पास अजावृन्द हो गया। / तदनन्तर अपने भाग्य को पलटा हुआ और अच्छे दिन आये समझ वह बड़े व्यापार करने की इच्छा से प्रातःकाल चौराहे में आया। वहां दूर देश से आये हुए सार्थेश से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 100 ] * रत्नपाल नृप चरित्र उस मनस्वी ने पाँच स्वर्णकोटि देकर क्रयाणक खरीदा। उस क्रयाणक को तीन दिन में जहाजी व्यापारियों के हाथ बेच दिया। उस व्यापार में उसको पचास सुवर्ण का लाभ हुआ / इस प्रकार लाभदायी व्यापार करता हुआ वह लाभकर्मोदय से बारह कोटि का स्वामी हो गया। जैसे जैसे उसके पास धन बढ़ता था, तैसे 2 उसके हृदय में विवेक भी अधिकाधिक बढता था। एक दिन दोनों धनवान् सेठ सिद्धदत्त और धनदत्त व्यापार करके चौराहे से भोजन करने के लिए घर आरहे थे / मार्ग में राजा के प्रधान पुत्र को किसी दसरे राजकुमार से विवाद करते देखा। तब धनदत्त ने मन में विचारा कि जहां दो मनुष्य विवाद करते हों, वहाँ नहीं जाना चाहिए। यह सोचकर वह अन्यत्र चला गया और विवेक से रहित, कौतुक देखने का अभिलाषी सिद्धदत्त वहाँ गया। बड़ा मनुष्य होने से उन दोनों ने उसको अपने विवाद में साक्षी मुकरर कर दिया। उसी समय उस विवाद को निपटाने के लिये वे दोनों अहंकार और मत्सर के साथ उस साक्षी को साथ लेकर राजसभा में जाकर उपस्थित हुए। उस समय राजा ने साक्षी को उनके न्याय-अन्याय के विषय में पूछा। तब . उस विवेकहीन ने राजपुत्र का अन्याय है, ऐसा कह दिया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुथ परिच्छेद * [ 101 उस समय खिन्न हुए राजा ने उन दोनों को व्यवस्था में रख कर, कुछ दिन बीतने पर अन्य दूषण लगाकर सिद्धदत्त से बीस कोटि सुवर्ण का दण्ड वसूल किया / महाजनों ने भी द्वेष्य होने के कारण उसकी उपेक्षा करली अर्थात् राजा से उसकी सिफारिश नहीं की। र एक दिन लावण्यलीला से ललित, रूप-सौभाग्यशाली . वे दोनों सेठ वस्त्र और अलंकार पहिने हुए राजमार्ग से जारहे थे। गवाक्ष में बैठी हुई मन्त्री की स्त्री रतिश्री ने स्मरापस्मार' के वश होकर उन दोनों को प्रेमपूर्वक देखा / उन्होंने भी रूप सौभाग्य और सौन्दर्य में विधाता के शिल्पकर्म की सीमा के सदृश गवाक्ष में बैठी हुई उस युवति को. देखा। उसको महापाप समझकर धनदत्त ने सूर्य-बिम्ब से 'जैसे दृष्टि हटाई जाती है उसी तरह दृष्टि हटाकर अन्यत्र प्रस्थान कर दिया। सिद्धदत्त तो अदान्त तथा विवेक रहित होने से बहुत देर तक गर्दन को मोड़े हुए टकटकी लगाकर उसको देखता रहा। अचानक वहां आये हुए चेष्टा और आकार के ज्ञान में कुशल कोतवाल ने उसको बाँधकर राजा को सौंप दिया। राजा ने भी कई दिनों तक उसको कारा 1. कामदेव P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 102 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * गार में रखकर धनवान् होने के कारण दस कोटि सुवर्ण लेकर मुक्त कर दिया। सिद्धदत्त और धनदत्त दोनों में से.. किसी को इस कर्म से कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ, बल्कि सिद्धदत्त के विवेकहीन कृत्य से उसको धन और इजत का ... नुकसान उठाना पड़ा। का एक दिन किसी चोर ने धनदत्त के पास आकर सवा करोड़ के मूल्यवान् दस रत्न दिखाये और कहा- "ये दस रत्न तुम ले लो और केवल दस हजार रुपये मुझे दे दो।"...... यह सुनकर धनदत्त ने विचार किया कि निश्चय ही यह धन . चोरी का है, नहीं तो इतने अल्प मूल्य में ऐसे मूल्यवान् रत्न ..., ये कैसे देता ? चोरी के लाये हुए धन को खरीदने से . सज्जन को भी चोरी का कलंक लगता है। विद्वान् लोगों' . ... ने सात प्रकार के चोर कहे हैं तथा शास्त्र में भी ऐसा ही कहा है:... , . .. .: चोर श्चोरापको मन्त्री भेदज्ञः क्राणक्रयी। अन्नदः स्नानद श्चैव चौर: सप्त विधिः स्मृतः // 1 // ..चोर, चोरापक, मन्त्री, भेद को जाननेवाल, चोरी का माल खरीदने वाला, चोर को अन्न देने वाला तथा स्थान देने वाला, ये सात प्रकार के चोर होते हैं। 'विवेक.. P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 2 चतुर्थ परिच्छेद 2 [ 103 से विकसित है बुद्धि जिसकी'. ऐसे धनदत्त ने लोभ को रोक कर उन रत्नों को ग्रहण नहीं किये / ... ये *.:. चोर ने उन्हीं रत्नों को सिद्धदत्त को दिखाये। उस - लोभी ने प्रसन्न होकर उनको ले लिया। चोरी करते 2 . उस चोर के पापं का घड़ा भर गया। एक दिन वह हाथ में चोरी का माल लिया हुआ इधर उधर दौड़ता हुआ नगर.रक्षकों के हाथ पड़ गया। उन्होंने उस चोर को चाबुक से निर्दयता पूर्वक पीटा और कहा–रे दुष्ट ! पुराना चुराय हुआ धनं कहाँ है ? साफ 2 वता / चाबुक से पीटे हुए - उसने जो जहाँ हुआ, उसे नाम और स्थान सहित सब कह दिया / पुरानी चोरी में गई हुई अनेक वस्तुओं की प्राप्ति से प्रसन्न हुए नगर-रक्षक ने अधिक धन के पाने की इच्छा से " फिर पूछा-रे ! जो तूने पहिले राजा के कोष से रत्न * चुराये थे, वे रत्न कहाँ है ? तब वह चोर कांपता हुआ - फिर कहने लगा-उन रत्नों को पहिले मैंने धनदत्त को दिखाया था, जब उसने नहीं लिये, तब मैंने सिद्धदत्त को दें दिये / नगर-रक्षक ने सब वृत्तान्त राजा को निवेदन कर दिया। उस समय चोरी से लाये हुए रत्न के खरीदने से राजा उस पर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। उसी समय सिद्धदत्त को बुलाकर कारागार में डाल दिया / सब प्रकार से उसे अन्न P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 104] * रत्नपाल नृप चरित्र * पानी देने का निषेध कर दिया। सिद्धदत्त का अतुल धन किसी काम नहीं आया। अब इस प्रकार कष्ट पड़ने पर पुरासी लोग उसकी उपेक्षा करने लगे। कितने ही दिनों से भूख-प्यास से पीड़ित होकर उसने अपने घर का सारा धन देकर कैद से छुटकारा पाया। अपने घर आकर घर को धन धान्य से रिक्त "अच्छा होता हुआ भी निर्जीव के समान" देखकर उसे अत्यन्त दुःख हुआ और मन में विचारने लगा कि इतने दिन तक देवी की कृपा से लक्ष्मी मेरे घर में सब तरफ से प्रारही थी। इस समय त्याग और भोग से रहित तथा स्वजनहीन विवेक रहित मेरी लक्ष्मी इसी प्रकार चली गई। मेरा धन इस लोक और परलोक के अच्छे कार्यों में और कहीं पर भी उपयुक्त नहीं हुआ / जंगल . में उत्पन्न हुई चमेली की तरह स्वभाव से ही चंचल लक्ष्मी में आसक्त इस (मुझ) मूर्ख को धिक्कार है। मैंने और धनदत्त दोनों ने देवी से यथेष्ट वरदान पाया है, परन्तु पूर्व क्रम के प्रभाव से फल में विषमता हुई / इस प्रकार मानसिक दुःखों से विरक्त होकर सिद्धदत्त संसार छोड़कर तापस हो गया। / एक दिन राजा ने धनदत्त को बुलाकर विस्मयपूर्वक पूछा-हे श्रेष्ठिन् ! बहुत लाभ होने पर भी तूने स्त्र क्यों P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद * [ 105 नहीं लिये ? यह लोभ इन्द्र से लेकर कीट पर्यन्त प्रसार पाया हुअा है। मन में प्रवेश करते हुए इस लोभ को तूने कैसे रोक लिया। उस समय अपने निर्दोषपने से निःशंक होकर धनदत्त ने राजा से कहा-हे राजन् ! सब पाप लोभ के कारण ही होते हैं। यदि लाभ है तो अन्य अवगुण से क्या ? इत्यादि शास्त्र के वचनों को सदा स्मरण करते हुए मुझको लोभ रूपी पिशाच कभी नहीं सताता। दूसरी बात यह है कि विशुद्ध न्याय के मार्ग में चलने वाले उत्तम पुरुष को चोरी और चोरी से प्राप्त धन को सर्वथा छोड़ देना चाहिए। हे स्वामिन् ! मैंने सन्तोष का आदर करके उन रत्नों को नहीं लिये / उसकी निर्लोभता से राजा ने प्रसन्न होकर उसका बड़ा सत्कार किया। सर्वथा सात व्यसनों से रहित होने से, शुद्ध व्यवहार में निष्ठ होने से, सधार्मिकपने से, सत्य और हितकारक वचनों के कहने से, सर्वत्र उदारपने से वर्द्धमान सम्पत्ति वाला धनदत्त सब नगरी का प्रिय हो गया। . एक दिन राजा की सभा में एक धूर्त आया और हाथ में कोटि मूल्य के रत्नों को रखकर दिखाने लगा और अहंभाव के साथ कहने लगा कि समुद्र में कितना जल है और कितना कीचड़ ? यह सन्देह मेरे मन में चिरकाल से है। जो P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 110] ॐ रत्नपाल नृप चरित्र * रसवती बड़े उत्साह से बनाई। उसी समय भूख-प्यास से बहुत व्याकुल, सार्थ से भृष्ट, तीन दिन से भयंकर जंगल को लांघकर कई महर्षि वहां आये। दयालु राजा और उस की रानी ने प्राशुक चावलों के धोवन से उन्हें निमन्त्रित किया। उन्होंने मिट्टी के बड़े पात्र में भरे हुए, समय पर प्राप्त हुए उसे शुद्ध जानकर ग्रहण कर लिया। वहीं पास रहे हुए वृक्ष की छाया में बैठकर अमृत की तरह उसे पीकर स्वास्थ्य लाभ किया। तदनन्तर उन मुनिओं के पास जाकर धर्मोपदेश सुनकर लघुकर्मा होने के कारण स्त्री सहित उस राजा ने श्रावक धर्म को अंगीकार कर लिया। अच्छी श्रद्धापूर्वक श्रावक धर्म की आराधना करके और समय पर समाहित मन से मरकर हे प्रजापाल रत्नपाल ! आप भाग्यनिधि उत्पन्न हुए हो / दुःख के दाह से उत्पन्न वैराग्य वाला सिद्धदत्त तापस फिर अज्ञान कष्ट करके जयामात्य हुआ। उस दिन तूने लोभ से उसका जहाज बारह दिन तक रोक रखा था, उस वैर से उसने यहां तेरा राज्य बारह वर्ष तक ग्रहण किया। ऋण / और बैर ये दोनों मूर्खता से मनुष्य द्वारा उपेक्षित हुए करोड़ों जन्म तक साथ जाते हैं। कभी जीर्ण नहीं होते। उनके कर्म विशेष करके अन्य भव में सौ अथवा हजार गुणा होकर वापिस उनको मिलते हैं / E asy : P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद : [ 111 धनदत्त का जीवन-वह विदेशी श्रावक था। पूर्व भव के उपकार से सदा उस समय दुख में जागत रहता था, जिसको तूने मरण समय में आराधना और उपवास कराया था। वह देवता होकर समय 2 पर तेरा उपकारी हुआ। तेरे पुराने भव की नौ ही स्त्रियें यहां आकर नीरदान से उत्पन्न हुए सद्भोग को साथ ही भोगने के लिए तुझे मिल गई / , वह श्रीदेवी उन स्त्रियों में श्रेष्ठ रानी शृंगारसुन्दरी हुई। उसने सहस्र जन्म के पहिले कायोत्सर्ग में रहे हुए मुनि को हास्यपूर्वक धूलि से अपमानित किया था। उसी कारण से इस जन्म में अनेक प्रकार की विडम्बनाएं इसको मिली। / 'पूर्वभव में कनकमंजरी ने नौकर को हे कुष्ठिन् ! तू मेरे कथन को नहीं मानता, इस प्रकार गाली दी थी। इसी प्रकार गुणमंजरी ने भी सेवक को "ऐ अन्धे!” इस प्रकार गाली दी थी। इस भव में वो यो व्याधि उन 2 कर्मों के फल से उनके हुई / पूर्वभव में इन स्त्रियों ने गाली देकर फिर थोड़ी दया नौकरों पर की, इस कारण से वैसी भयंकर व्याधि भी उनकी शान्त हो गई। { जो तूने उस समय तूम्बा भर निर्दोष पानी श्रद्धापूर्वक साधुओं को दिया था, उसी से सब प्रयोजन को सिद्ध करने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 108 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * जो कोई सज्जन पुरुष मुझे इस विवाद से छुड़ा देगा, वह मेरा परम बन्धु है। फिर मैं उसे एक कोटि स्वर्ण दंगी। उस समय "विवेक से शोभायमान है बुद्धि जिसकी" ऐसा धनदत्त उनके वृत्तान्त को सुनकर उनके विवाद का निर्णय करने को शीघ्र वहां आया। उसके हाथ में बारह करोड़ स्वर्ण के मूल्य की महामणि थी। बायें हाथ में रहे हुए काँच में प्रतिविम्बित मणि को दिखाकर बोला- इन्हें ले और इस पण्य स्त्री को छोड़ दे। धूर्त बोला-इस काँच में प्रतिबिम्बित मणियों से मुझे क्या प्रयोजन ? धनदत्त बोला-हे द्र ! जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है / जैसा देव वैसी पूजा / तूने स्वप्न में जैसा धन इसको, दिया, वैसा ही प्रतिबिम्बित इससे दिया हुआ यह तेरे सामने है। इसमें कोई दोष नहीं। यह सुनकर वह धूर्त निरुत्तर होकर . विलख मुख जैसे आया था. वैसा ही कहीं चला गया / तदनन्तर मिथ्या विवाद से मुक्त होने के कारण प्रसन्न उस वैश्यां ने धनदत्त को कुछ अधिक स्वर्ण कोटि दी। इस प्रकार बुद्धिमान् धनदत्तं प्रवर्धमान ऋद्धि वाला होता हुआ क्रम से छप्पन कोटि स्वर्ण का स्वामी बन गया.।। एक दिन उस नगर में बली कोई व्याद (राक्षस) आया और उसने राजा को पकड़ लिया। इस कारण राजा P.P. Ac. Gunrainasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद * [106 '' .. .. .. तत्काल ही मृत्यु दशा में पहुँच गया। तदनन्तर वह राक्षस आकाश में स्थित होकर कहने लगा-यदि कोई अपनी बलि मुझे दे तो मैं राजा को छोड़ सकता हूँ। मन्त्री आदि सब घर बैठे मौत बुलाने के न्योते को मानने में असमर्थ हुए / सत्वहीनता से पुरवासी भी लज्जित हुए नीचा देखने लगे। / उस समय परोपकारनिष्णान्त धनदत्त ने राजा की रक्षा करने के विचार से राक्षस को अपनी बलि दे दी। उसके आत्मबल से प्रसन्न हुए राक्षस ने शीघ्र ही राजा को छोड़ दिया और बारह कोटि स्वर्ण की वर्षा कर अन्तर्द्वान हो गया। वह राक्षस क्रूर जाति का मांस भक्षी नहीं था। बल्कि मनुष्यों के आत्मबल की परीक्षा करने के लिए उसने ऐसी याचना की थी। तदनन्तर कृतज्ञ राजा ने अपना अत्यन्त उपकार करने वाले धनदत्त को सब व्यवहारियों में मुख्य बना दिया। भद्र प्रकृति, पाप से भयभीत तथा सौम्य दृष्टि राजा, अपनी प्रजा का पालन न्यायपूर्वक करने लगा। एक दिन वसन्त ऋतु में क्रीडा-कौतुकी राजा अपने अन्तःपुर के साथ नगर के बाहिर. उद्यान में गया। वहां सूपकारों ने (रसोइयाने) राजा की आज्ञा से नाना प्रकार की P.P.AC.Gunratnasuri M.S.. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ . 106 1 * रत्नपाल नृप चरित्र * विद्वान् इसके न्यूनाधिकपने को जानता हो और मुझे विश्वास दिला दे, उसको मैं ये पांचों रत्न दे दूं। उसके दुर्बोध संशय को राजसभा में किसी ने दूर नहीं किया। यह किंवदन्ती सारे नगर में फैल गयी। उस समय देवी की कृपा से प्राप्त विवेक धनदत्त राजा के महत्व की रक्षा करने के इरादे से सभा में गया और कहने लगा हे भद्र ! समुद्र में पानी कम और कीचड़ अधिक है। यदि मेरे कथन में तुझे विश्वास न हो तो समुद्र में गिरती हुई गंगा आदि नदियों को रोककर समुद्र के सब जल का होशियारी से नाप बना ले। फिर समुद्र के समस्त जल को अलग करके कर्दम का नाप करले / ऐसा करने से कीचड़ की संख्या निश्चय ही अधिक होगी। इस असाध्य चतुरता से भरी वचनोक्ति से हणाया हुआ, लज्जा से विलख मुख, अपनी पराजय को मानता हुआ वह कहे हुए रत्नों को धनदत्त को देकर सभा में अपनी हंसी करवाकर नगर के बाहिर चला गया। 'प्रशंसनीय है बुद्धि जिसकी' ऐसा धनदत्त राजा से बहुत सत्कार पाया हुआ बड़े उत्सव के साथ अपने घर गया। * एक दिन उस नगर में नौजवान स्वरूप, अच्छा शृंगार किया हुआ धूर्त रूप सौभाग्यशालिनी, बारह कोटि 1. यह बात P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ ॐ चतुर्थ परिच्छेद * . [ 107 स्वर्ण की स्वामिनी अनंगलेखा नामक वैश्या के घर में सार्थेश धनिक का वेश धारण किये हुए आया। उस समय उसे बड़ा धनी समझकर कपट में प्रवीण वैश्या अपना प्रेम दिखाती हुई बोली-मैंने आज स्वप्न में तुम्हारे से बारह करोड़ स्वर्ण पाये हैं। कल्पद्रुम के समान तेरे आगमन से वह स्वप्न सत्य हो गया। वह बोला-हे शुभे! यह सत्य है, मैंने स्वप्न में बारह कोटि स्वर्ण तेरे घर में इनामत रक्खी है। अच्छे भोग / के सुख में लुब्ध मन वाला मैं 12 वर्ष तक तेरे घर में रहूँगा। यह साफ साफ कहकर फिर कहने लगा-इस वक्त तो मेरा सथवाड़ा देशान्तर में जाने को उत्सुक है। क्योंकि मैंने व्यवसाय में वहां बहुत लाभ उठाया है। इसलिए वहां जाकर बहुत धन उपार्जन कर तेरे सौभाग्य से खिंचा हुआ शीघ्र तेरे घर आऊंगा। इस कारण वो बारह कोटि स्वर्णराशि शीघ्र मुझे दे दे। इस प्रकार कहते हुए धूर्त ने उसका हाथ पकड़ लिया। “ये क्या कर रहे हो ?" ऐसा कहती हुई वैश्या को वह चौराहे में ले आया। उनका विवाद किसी समझदार ने नहीं तोड़ा / पहिले तो वैश्या होने से हास्यास्पद थी. ही, फिर इस विवाद से विशेष विकल हो गई। इस धूर्त विवाद से किसी प्रकार छुटकारा पाने की इच्छा से अपने नौकर द्वारा सर्वत्र पटह बजवाया कि P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 112 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * .. वाला रसतुम्बक तुझे मिला और सदा उत्सव से युक्त निष्कटक राज्य भी मिला / इस प्रकार सर्वज्ञ मुनि के मुखारविन्द से अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्त को अच्छी तरह श्रवण करने से . सप्रिय नृप रत्नपाल को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उस जातिस्मरण ज्ञान से सर्वज्ञ मुनि से कहे हुए अपने पूर्वभव के वृत्तान्त को साक्षात् देखकर अभंग वैराग्य को प्राप्त हुआ, मन में इस प्रकार विचारने लगा-दुःख ही है सार जिसमें ऐसे संसार में भटकते हुए तृष्णा से चंचल प्राणियों ने अनेक बार विषय सुख पहिले भी भोगे हैं। हा! यह खेद के साथ कहना पड़ता है तो भी मूर्ख लोग उन्हीं विषयों में आसक्त हुए परलोक में आत्म-कल्याण करने वाले आर्हत धर्म का आचरण नहीं करते। जैसे शरदकाल-बादल पवन से बिखर जाते हैं, उसी प्रकार इस संसार में दृश्य क्षणभंगुर हैं, ऐसा मैं मानता हूँ। लक्ष्मी समुद्र के तरंग की भांति चंचल है और प्रिय संगम मार्ग में रहे हुऐ वृक्ष के नीचे विश्राम लेने वाले मुसाफिरों के संगम जैसा है। और सब इन्द्रियों के विषय आपातमधुर तथा परिणाम में दुखदायी हैं। केले के मध्य भाग की तरह संसार में कुछ दिखाई नहीं पड़ता। क्षण में दीखने से और क्षण में ही नष्ट होने से संसार में सब स्वप्न तुल्य हैं। पहिला–अर्थात् स्वप्न सोये हुए को होता P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak'Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद *. [113 है और दूसरा-संसार जगे हुए को दीखता है, यह फर्क है। प्रतिक्षण नष्ट होता हुआ यह शरीर मालूम नहीं होता। पानी में डाले हुए कच्चे घड़े की तरह बिखरने से मालूम होता है। आयु नाक के अग्र भाग में चलने वाले श्वास के बहाने से शीघ्र भागने के लिए अभ्यास किया हुआ सा प्रतीत होता है। जिनसे हम उत्पन्न हुए, उनको गये तो बहुत काल हो गया। हमारी समान अवस्था वालों को जाते हुए देखकर भी यह आत्मा अनाकुल है, यह बड़ा खेद है। यदुक्तम्:- . . वयं योभ्यो जाता श्विर परिगता एव खलुते / समं यैः संवृद्धाः स्मृति विषयतां तेऽपि गमिताः॥ इदानी मेते स्म प्रतिदिन समापन्न पतना। गता तुल्यावस्थां सिकतिल नदी तीर तरुभिः // 1 // . विषय बहुत समय तक रहकर भी बुढ़ापे में चले जायेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं। स्वयं छोड़े हुए ये विषय बहुत सुख देने वाले होते हैं / कहा है: अवश्य यातारश्चिरतर मुषित्वाऽपि विषयाः। .... वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् / व्रजन्तः स्वातंत्र्यात् अतुल परितापाय मनसः। स्वयं त्यक्ता ह्य ते शम सुखमनन्तं विद्धति // 1 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 114 ] * रत्नपाल नृप चरित्र ... उपरोक्त कारण से इस संसार में विषयान्तर को छोड़कर विद्वान् को सर्वज्ञ भाषित धर्म का सार संग्रह करना चाहिए। इस प्रकार निर्मल चित्त नृप रत्नपाल विषयों की महिमा से विरत हुआ प्रव्रज्या 'दीक्षा' के ग्रहण करने में दृढ़संकल्प हो गया। तदनन्तर अच्छे गुणों द्वारा जिनको परम उच्च स्थान पर पहुँचाया था, वे मुख्यमन्त्री तथा सामन्त और मित्र लोग उस समय रत्नपाल राजा से कहने लगे-हे स्वामिन् एक आपके ही सहारे जीवित रहने वाले हम लोग कल्पवृक्ष के सदृश आपसे च्युत हुए पुष्प की तरह हाय ! कैसे हो जायेंगे और नाना भोग को भोगने वाले अन्तःपुर के लोग आपके छोड देने पर मस्तक से गिरे हुए केशों की तरह कैसे हो जायेंगे ? हे न्यायनिष्ठ ! हे गुण श्रेष्ठ ! आपसे लालन पालन की हुई यह प्रजा माता-पिता के सदृश सुख किस से पाएगी? इस प्रकार. मोह को उत्पन्न करने वाले उनके वाक्यों को सुनकर भी राजा रत्नपाल का मन स्थिर वैराग्य से कुछ भी विचलित नहीं हुआ। ... तदनन्तर नृप रत्नपाल ने अपनी प्रतिमा सदृश पुत्र मेघरथ को सब सामन्त राजाओं के सामने ही राज्यसिंहासन P.P.AC. Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ * चतुर्थ परिच्छेद : [115 पर बिठाकर और उसे राजनीति की शिक्षा देकर समस्त जन-समुदाय में जिनमत के उद्योत को करने की इच्छा से अपनी स्त्रियों के साथ अष्टान्हिका महोत्सव करके, दीनदुखियों को दान देता हुआ अपने पुत्र द्वारा किये हुए महोत्सव पूर्वक महासेन नामक मुनि के पास दीक्षा ग्रहण करली। वह शुद्ध चित्त होकर निरतिचार चारित्र का पालन करने लगा और कठिन तर करके समय पर समाहित मन से मर कर देवलोक में महान् देवता हुआ। वहां बहुत काल तक स्त्री के साथ अद्भुत देवसम्पत्ति को भोगकर महाविदेह में मनुष्यभव पाकर शीफ़ ही सिद्ध होगा। उज्वल दान निःसीम समृद्धि का कारण है, ऐसा मानकर शुद्ध मन से सज्जनों को उसमें प्रयत्न करना चाहिए। तपागच्छाधिराज श्री सोम सुन्दर सूरि पट्ट प्रभावक गच्छनायक युगप्रधान श्री मुनि सुन्दर सूरि विनेय वाचनाचार्य सोम मण्डन गणि कृता सत्पात्र पानीय दाने श्री रत्नपाल नृप कथा समाप्ता॥ . P.P.AC. Gunrathasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ 116 ] * रत्नपाल नप चरित्र * परम सुविहित नामधेय तपोगच्छाधिपति आवाल ब्रह्मचारी विद्ववृन्द वन्दनीय शास्त्र विशारद अनुयोगाचार्य पन्यासजी श्रीमद् हीरमुनिजी - महाराज तत्करार्पित दीक्षा विद्यावारिधि :: : मुनि सुन्दरमुनि स्तस्य शिष्य विद्या प्रेमी सुरेन्द्रमुनि कृते रत्नपाल नृप चरित्रे भाषानुवादे . रत्नपाल पूर्वभव वर्णन दीक्षा वर्णन नाम चतुर्थ परिच्छेद समाप्त // C G666666 ॐ.0000000000000GGC P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
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________________ इस पुस्तक के छपाने में सहायता देने वाले सद्गृहस्थों की नामावली 71) रु० दुजाना निवासी शाह प्रेमचन्द जीवराज 71) रु० दुजाना निवासी शाह चत्रमाण चमनाजी 51) रु० दुजाना निवासी शाह चुन्नीलाल केशाजी .51) रु० वणदार निवासी शाह उदयचन्द धनराज 101) रु० चन्दराइ निवासी शाह हेमराज जसाजी 51) रु० चन्दराइ निवासी शाह वृद्धिचन्द कपूरचन्द 51) रु० चन्दराइ निवासी शाह देवीचन्द मन्नाजी 51) रु० भाडुदा निवासी तीजा बहन 51) रु० ताल निवासी बाई मैना बहन . Serving Jin Shasan 111391 gyanmandirikobatirth.org फोटु और टाईटल श्री बहादुरसिंहजी प्री. प्रेस : पालीताणा. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust