________________ * चतुथ परिच्छेद * [ 101 उस समय खिन्न हुए राजा ने उन दोनों को व्यवस्था में रख कर, कुछ दिन बीतने पर अन्य दूषण लगाकर सिद्धदत्त से बीस कोटि सुवर्ण का दण्ड वसूल किया / महाजनों ने भी द्वेष्य होने के कारण उसकी उपेक्षा करली अर्थात् राजा से उसकी सिफारिश नहीं की। र एक दिन लावण्यलीला से ललित, रूप-सौभाग्यशाली . वे दोनों सेठ वस्त्र और अलंकार पहिने हुए राजमार्ग से जारहे थे। गवाक्ष में बैठी हुई मन्त्री की स्त्री रतिश्री ने स्मरापस्मार' के वश होकर उन दोनों को प्रेमपूर्वक देखा / उन्होंने भी रूप सौभाग्य और सौन्दर्य में विधाता के शिल्पकर्म की सीमा के सदृश गवाक्ष में बैठी हुई उस युवति को. देखा। उसको महापाप समझकर धनदत्त ने सूर्य-बिम्ब से 'जैसे दृष्टि हटाई जाती है उसी तरह दृष्टि हटाकर अन्यत्र प्रस्थान कर दिया। सिद्धदत्त तो अदान्त तथा विवेक रहित होने से बहुत देर तक गर्दन को मोड़े हुए टकटकी लगाकर उसको देखता रहा। अचानक वहां आये हुए चेष्टा और आकार के ज्ञान में कुशल कोतवाल ने उसको बाँधकर राजा को सौंप दिया। राजा ने भी कई दिनों तक उसको कारा 1. कामदेव P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust