________________ 100 ] * रत्नपाल नृप चरित्र उस मनस्वी ने पाँच स्वर्णकोटि देकर क्रयाणक खरीदा। उस क्रयाणक को तीन दिन में जहाजी व्यापारियों के हाथ बेच दिया। उस व्यापार में उसको पचास सुवर्ण का लाभ हुआ / इस प्रकार लाभदायी व्यापार करता हुआ वह लाभकर्मोदय से बारह कोटि का स्वामी हो गया। जैसे जैसे उसके पास धन बढ़ता था, तैसे 2 उसके हृदय में विवेक भी अधिकाधिक बढता था। एक दिन दोनों धनवान् सेठ सिद्धदत्त और धनदत्त व्यापार करके चौराहे से भोजन करने के लिए घर आरहे थे / मार्ग में राजा के प्रधान पुत्र को किसी दसरे राजकुमार से विवाद करते देखा। तब धनदत्त ने मन में विचारा कि जहां दो मनुष्य विवाद करते हों, वहाँ नहीं जाना चाहिए। यह सोचकर वह अन्यत्र चला गया और विवेक से रहित, कौतुक देखने का अभिलाषी सिद्धदत्त वहाँ गया। बड़ा मनुष्य होने से उन दोनों ने उसको अपने विवाद में साक्षी मुकरर कर दिया। उसी समय उस विवाद को निपटाने के लिये वे दोनों अहंकार और मत्सर के साथ उस साक्षी को साथ लेकर राजसभा में जाकर उपस्थित हुए। उस समय राजा ने साक्षी को उनके न्याय-अन्याय के विषय में पूछा। तब . उस विवेकहीन ने राजपुत्र का अन्याय है, ऐसा कह दिया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust