________________ ॐ चतुर्थ परिच्छेद * [83 कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं नरेन्द्र श्चक्रवर्तिताम् / चक्रवर्ती च देवत्वं देवोऽपीन्द्रत्व मिच्छति // 2 // इन्द्रत्वेऽपि च संप्राप्ते यदीच्छा न निवर्तते। मूले लघीयां तल्लोभः शराव इव वर्द्धते // 3 // - अर्थात्-धनहीन पुरुष सौ रुपये चाहता है, सौ रुपये वाला हजार रुपये चाहता है, हजार वाला लाख, लखपति करोड़, कोटिपति नरेद्र पद को, नरेन्द्र चक्रवर्ती पद को, चक्रवर्ती देवपन को, देवता इन्द्र पद को चाहते हैं। इन्द्र पद के मिलने पर भी इच्छा निवृत्ति नहीं है क्योंकि यह लोभ का महात्म्य है। आरम्भ में अल्प होर हुआ भी सराब 'वेल' की भांति बढता है। बड़ा भारी लाभ होने पर भी लोभ घटता नहीं। मात्राहीन भी जीवित रहता है। मात्रा समधिक कैसे हो सकती है ? _ अति लोभ मनुष्यों के लिए निश्चय करके महान् अनर्थ का कारण होता है। जैसे पहिले शृंगदत्त श्रेष्ठी को अप्रशस्त रूप में हुआ था। 'हे मित्र ! जो आपने लोभ का * उदाहरण शृंगदत्त कहा है, वह कौन था ?' इस प्रकार सिद्धदत्त के पूछने पर उस मित्र ने सारा वृत्तान्त कहना शुरू किया। शृंगदत्त की कथा इस प्रकार है P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust