________________ * प्रथम परिच्छेद - हुया है, उसमें भी मेरे सिवाय दूसरे किसी का प्रभाव नहीं। सीता, सुभद्रादि सतियों ने पहिले जो दुःसाध्यकृत सम्पादन किये, वह सब मेरा ही निष्कलक महात्म्य है। स्वेच्छाचारी सावध कर्म में लगा हुआ, कलह कराने वाला नारद भी शुद्ध मन से मेरी आराधना करके मोक्ष में गया / जिनेश्वर भगवान ने अन्य दानादि के लिए न तो अनुज्ञः दी है, न निषेध किया है, परन्तु संसार बीज जो अब्रह्म है उसका सब स्थानों में निषेध किया है / मरी मुख्यता का कारण यह है कि जितेन्द्रियत्व मेरे द्वारा प्राप्त होता है और उससे विनय, फिर क्रम से विनय द्वारा सब सम्पत्ति प्राप्त होती हैं। इसलिए निश्चय करके मैं शील ही सम्पत्ति का मूल कारण हू / अन्य स्थानों में भी कहा है, कि विनय का कारण जितेन्द्रियपन है, विनय से गुणों की उत्कृष्टता होती है। गुण प्रकर्ष से मनुष्य प्रसन्न होते हैं और मनुष्यों की प्रसन्नता से ही सम्पत्तियें प्राप्त होती हैं। उपरोक्त कारणों : से दूसरों को नहीं प्राप्त होने वाले श्रेष्ठकर्म से विदित है स्वरूप जिसका, ऐसे मेरे शतांश को भी अन्य दानादि धर्म .. पाने योग्य नहीं है, यह निश्चित है। तप कहने लगा-दानादि की गुरुता तब तक है जब तक मेरे देदीप्यमान महात्म्य पर दृष्टि न पड़े। कठिन कार्यों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust