________________ * द्वितीय परिच्छेद के [13 कि काशी निवासी ठगने में बड़े चतुर होते हैं। इस बात को सुनते ही वह कन्या काशीराज से विरक्त हो गई। mmmmmm आगे चलकर प्रतिहार ने कन्या से कहा-ये बलशाली मधूपध्नपति मधु के समान मधुर वाणी बाले हैं। हे कन्ये ! इसे वरण करलो। कालियनाग के विष से ही मानो यमुना का जल नील है, वृन्दावन जिसका क्रीड़ा-स्थान है, उसके विषय में विशेष क्या कहा जाय ? इस प्रकार उपहासयुक्त वाणी से उस मधूपघ्न राजा के जान लेने पर और उसमें अरुचि हाने पर प्रतिहार फिर कोंकण देश के राजा का वर्णन यों करने लगा-"बलवानों की सीमा सय बल नामक ये महीपति हैं, यह प्रसिद्ध है कि इसके भय से इन्द्र आज भी समुद्र में छुपे हुए पर्वतों के पंख को नहीं काटता। तब वह कन्या बोली कि वहां के मनुष्य निष्कारण ही क्रोध करने वाले हैं, इसलिए पद 2 पर रुष्ट हुए इसको मनाने में मैं समर्थ नहीं हूँ। शास्त्रकार ने कहा है या काम अकाण्ड कोपिनो भर्तुरन्यासक्तेश्व योषितः / प्रसत्तिश्वेतसःकर्तुः शक्रेणाऽपि न शक्यते // 1 // अर्थात्-निष्कारण क्रोध करने वाले स्वामी का, - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust