________________ ___32 ] ॐ रत्नपाल नृप चरित्र * पर्वत पर गगनवल्लभ नामक नगरी में इन्द्रतुल्य बलशाली विद्याधर वल्लभ नामक राजा है, मैं उसका पुत्र हूँ, मेरा नाम हेमांगद है। मैं अपनी धर्मपत्नी के साथ नन्दीश्वर द्वीप पर जिनेश्वर भगवान् को नमस्कार करने जा रहा था। मार्ग में राक्षसी विद्या के बल से उन्मत्त एक खेचर मिला। उसने मुझे बांधकर मेरी स्त्री को हरली / हे प्राणप्रद ! जगद्वीर ! इस समय तुम मेरी सहायता करो, जिससे उस शत्रु को जीतकर मैं अपनी स्त्री . को प्राप्त कर सकें / इस प्रकार वह विद्याधर रत्नपाल से प्रार्थना कर ही रहा था कि इतने में यमराज से आकृष्ट हुआ वह राक्षस वहां आ गया। उसे देख रत्नपाल ने कहा-ऐ परस्त्री के लोभी, रे पापी ! तू अपने इष्ट देवता को याद कर / दुष्टों का शासन करने वाला रत्नपाल नृप तुझे मिल गया। यह कहकर उसके साथ युद्ध करके उसे पराजित किया। वह भयभीत होकर अपनी जान लेकर भाग गया / इस प्रकार बिना कहे ही उस नृप ने हेमांगद का प्रयोजन सिद्ध कर दिया / सज़न लोग परिणाम में अपनी उपयोगिता. नहीं कहते / अपनी स्त्री को पाकर प्रसन्न हुए हेमांगद ने नृप से कहा-आप मेरे निमित्त रहित उपकारी हैं। मैं आपका कौनसा अभीष्ट सिद्ध करू ? उस समय रत्नपाल ने कहा कि मेरा कोई प्रयोजन नहीं दिखलाई पड़ता। हे मित्र ! तू स्त्री सहितं घर जाकर यथेष्ट सुख भोग / कहा है कि जो उपकार P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust