________________ 108 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * जो कोई सज्जन पुरुष मुझे इस विवाद से छुड़ा देगा, वह मेरा परम बन्धु है। फिर मैं उसे एक कोटि स्वर्ण दंगी। उस समय "विवेक से शोभायमान है बुद्धि जिसकी" ऐसा धनदत्त उनके वृत्तान्त को सुनकर उनके विवाद का निर्णय करने को शीघ्र वहां आया। उसके हाथ में बारह करोड़ स्वर्ण के मूल्य की महामणि थी। बायें हाथ में रहे हुए काँच में प्रतिविम्बित मणि को दिखाकर बोला- इन्हें ले और इस पण्य स्त्री को छोड़ दे। धूर्त बोला-इस काँच में प्रतिबिम्बित मणियों से मुझे क्या प्रयोजन ? धनदत्त बोला-हे द्र ! जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है / जैसा देव वैसी पूजा / तूने स्वप्न में जैसा धन इसको, दिया, वैसा ही प्रतिबिम्बित इससे दिया हुआ यह तेरे सामने है। इसमें कोई दोष नहीं। यह सुनकर वह धूर्त निरुत्तर होकर . विलख मुख जैसे आया था. वैसा ही कहीं चला गया / तदनन्तर मिथ्या विवाद से मुक्त होने के कारण प्रसन्न उस वैश्यां ने धनदत्त को कुछ अधिक स्वर्ण कोटि दी। इस प्रकार बुद्धिमान् धनदत्तं प्रवर्धमान ऋद्धि वाला होता हुआ क्रम से छप्पन कोटि स्वर्ण का स्वामी बन गया.।। एक दिन उस नगर में बली कोई व्याद (राक्षस) आया और उसने राजा को पकड़ लिया। इस कारण राजा P.P. Ac. Gunrainasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust