________________ * तृतीय परिच्छेद 2 [49 से अतुल लक्ष्मी ऋद्धि सिद्धि की प्राप्ति कर ना रत्नपाल ने धर्म में श्रद्धा होने के कारण सप्तक्षेत्री में सर्वदा तीस लाख सुवर्ण देना शुरू किया। अन्तःपुर तथा अपने शरीर के लिए, नौकर कर्मकर आदि के निमित्त, एवं हाथी घोड़ों के लिए तीस लाख स्वर्ण मुद्रायें रोज व्यय होती थीं। इस प्रकार नृप रत्नपाल के स्वर्ण कोटि व्यय होती हुई सदा देखने में आती थीं, वह स्वर्णकोटि दिव्य रस के प्रभाव से सहज ही प्राप्त हो जाती थी। ......इधर उस नगर में एक इतकार रहता था। वह सदा एक लाख द्रंभ 'सिक्के' जीतता था और फिर हार जाता था। संध्या समय उसके पास द्रंभ का तीसरा भाग तो बच ही जाता था, उसके मूल्य से गेहूं के पुओं को कहीं जाकर पकाता था और चंडी के मन्दिर में जाकर चण्डी के कन्धे पर पैर रखकर दीप के तेल में चुपड़ कर पुओं को निःशंक होकर खाया करता था। उस समय चण्डी मन में विचार करती कि यहां पर कोई मनुष्य आवे तो मेरे प्रसिद्ध महात्म्य को जान जाय / इस प्रकार चिन्ता करती हुई देवी दुखित हो किसी प्रकार उसे निकालना चाहती थी। 1. किसी समय वह निःशंक होकर पुए. खारहा था, ऐसे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust