________________ द्वितीय परिच्छेद . नष्ट हो गई थी अपने विश्वासघात के पापों के फलों को भोगता हुआ सातवीं नरक में गिरा। राजा के मस्तक पर पुष्प-वृष्टि करते हुए देवाताओं की "धर्मे जयः क्षयः पापे" इस प्रकार आकाश में वाणी हुई / उस समय देव ने प्रकट होकर कहा- हे राजन् ! तूने वैदेशिक श्रान्तश्रावक की उस समय सेवा की थी, वह मैं समाहित मन से मरकर देवपन को प्राप्त हुआ है / हे मिव ! आज - तेरे पर संकट आने पर अवस्वापिनी विद्या को हरण कर तुझे जयश्री देने को पाया है। यह कहकर वह देव सैंकड़ों स्वर्ण कोटि रखपाल. राजा के सामने वर्षा कर देवलोक को चला गया। इस प्रकार जयामात्य को जीत कर पुरवासियों के धूमधाम से उत्सव करने पर वह राजा अपनी स्त्री के मिलने की उत्कण्ठा से नगर में प्रविष्ट हुया। उस समय पति की आज्ञा से मनोहर और स्वादिष्ट भोजन से पारणा कर प्रसन्नता से शृंगारसुन्दरी ने सर्वात शृंगार किया। तदनन्तर शील-रक्षा के लिए उन 2 कदर्थनाओं को सहन की हुई सुन- ... कर राजा रत्नपाल ने प्रसन्न होकर उसे पटरानी बना दिया / का किसी समय राज्य का पालन करते हुए उस राजा क पास कई वनेचरों ने आकर अर्ज की। हे राजन् ! आपके P.P. Ac. Gunratnasuri.M.S. Jun Gun Aaradhak Trust