________________ 111391 ॐ तृतीय पच्छेिद * तो इस पत्थर से तेरा मुख अवश्य ही तोड़ डालूंगा। यह सुनकर देवी ने विचारा कि इस दुरात्मा के इस पाप कर्म से किसी प्रकार उद्धार नहीं होगा, और अपनी हानि तथा मनुष्यों में हंसी होगी। मैं इस दुष्ट का कुछ अनर्थ भी नहीं कर सकती। इस तरह विवश होकर भय से उसने अपनी जीभ मुख में ले ली। इस प्रकार उस उत्पात के शान्त होने पर सब पुरवासी प्रसन्न हुए। धूर्त ने तो सारा धन उसी दिन गमा दिया। किसी विद्वान् ने कहा है___ द्विघटं पहिला मुनि द्य तकार करे धनम् / हारश्च मर्कटी कंठे कियढेलं हि तिष्ठति // 1 // अर्थात् हठीली स्त्री के सिर पर दो घड़े, जुआरी के हाथ में रहा हुआ धन, वानरी के गले में हार, ये कितने समय तक रह सकते हैं ? तदनन्तर भी चण्डीघर में रात्रि में आकर सदा बह छ तकार उसी प्रकार निशंक होकर पुओं को खाता था। किसी समय उस दुष्ट के साथ अन्य कुछ न करने की शक्ति वाली और उसके दुर्विनय से दुखी हुई देवी ने उस धूर्त के रात्रि में आने पर अपने मन्दिर से एक दीपक निकाला। उसे देखकर धूर्त बोला-हे दीप ! ठहर / कहां जा रहा है ? इस प्रकार कहता हुआ उसके पीछे चला, तर देवी की आज्ञा से.दीपक उससे कहने लगा-रे धूर्त ! आधायी काल सागर सरि सानादि ___श्री महापीर मे आराधना केन्द्र फेवा, जि. गांधीनगर, पीन-३८२००९ P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust