________________ 52 ] .. रत्नपाल नृप चरित्र * तू रूखे ही पुओं को भक्षण कर / . मैं तुझे थोड़ा भी तैल न दंगा। मैं समुद्र के उस पार जाऊंगा। तू मेरे पीछे से लौटता क्यों नहीं ? वह वोला-वहां आकर भी मैं तैल लेनूंगा। तू हां तक भागेगा ? आगे 2 दीपक, पीछे 2 वह धूर्त दोनों जल्दी 2 जाते हुए सूर्य के उदय होने पर एक दूर जंगल में पहुँचे / उस समय उसको चकमा देकर वह दोपक अन्तर्धान हो गया। 'शत्रु को सर्प की तरह दूर फेंक दिया ऐसा सोचकर वह सुरी' अत्यन्त हृष्ट हुई। उस / समय वह धूर्त 'हाय ! देवी ने मुझे भ्रान्त कर दिया' इस / प्रकार वह मन में दुखी होता हुआ जंगल में भटकने लगा / उस धूर्त ने प्रज्वलित अग्निकुण्ड के समीप अप्सराओं को भी जीतने योग्य जिनका सौभाग्य है, ऐसी उठते हुए यौवन वाली दो कन्याओं को और एक मनुष्य को जो विकलांग था, देखा। तुम कौन हो और यहां कैसे आई। यह पूछने पर उन्होंने कुछ भी उत्तर न दिया। तब वह लौटकर नगर में आ गया। . . इस नगर में रत्नपाल नामक राजा है, जो मनुष्य सच्ची और अपूर्व वार्ता कहे उसे वह दस लाख सुवर्ण देता है। 1. देवी P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust.