________________ * चतुर्थ पच्छेिद * [87 पुत्र-बहुओं ने उसको कला और कौटल्य में चतुर जानकर नाना प्रकार के अतिथि सत्कार से प्रसन्न करके कहा---हे माता ! हम बालपन से लेकर बन्दीखाने में पड़ी हुई हैं। इस समय हम आदि योगिनी स्वरूप आपकी शरण में हैं। आर हम पर प्रसन्न होइये / हे सब कलाओं में चतुर ! आप हमका आज विविध आश्चर्य से भरी हुई इस पृथ्वी को दिखाइये। इस प्रकार भक्ति युक्त बहुओं के वचन को सुन कर वह योगिनी बहुत प्रसन्न हुई और उनको साधार आकाशगामिनी विद्या दी। / तदनन्तर वे बन्धन से मुक्त हुई की तरह चित्त मे बहुत प्रसन्न हुई / वे चारों बहुए सब प्राभूषणों से सज्जित होकर रात्रि में घर के सब लोगों के सोजाने पर वाड़े में रहे हुए बड़े काष्ठ पर चढ़कर स्वर्ण दीप में चली गई। वहां किसी एकान्त स्थान में उस काष्ठ को रखकर कौतुक को देखने की उत्कण्ठा से देवताओं के क्रीड़ा नगर में वे घुस गई। वहां उन्होंने सुन्दर श्रृंगार किये हुए इन्द्रादि देवताओं को खेलते हुए और अप्सराओं के मनोहर नृत्य को स्वच्छन्दता से देखा / फिर रात्रि के अन्तिम प्रहर में उसी काष्ठ पर चढकर अपने घर आकर यथा स्थान बहाने से सो गई। यौवन से उद्धत स्वेच्छाविहार में लगी हुई उनको किसी ने P.P.Ac: Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust