________________ .20 ] . * रत्नपाल नृप चरित्र * - उस स्वर्गलोक में ऐसे देवता लोग जिनको सर्वाङ्ग सुख की सम्पत्ति इच्छा से प्राप्त है, अल्प. पुण्य वालों से दुष्प्राप्य सत्कर्म को भोगते हैं। इस संसार में जो राजा लोग सब प्रकार के सुखों के भोगों को भोगते हैं, वे सुख भोग स्वर्ग के सबसे हीन ऋद्धि वाले के सुख का शतांश भी नहीं पा सकते। उस समय हमने सव द्रष्टव्यों की अवधि भूत स्वर्ग को देखकर स्रष्टा के दृष्टि सृष्टि के परिश्रम को सफल माना / हे राजन् ! इस प्रकार की महद्धि से प्रसन्न हुए देवता लोग भी नवीन पुण्य के अर्जन की इच्छा से मनुष्यभव को चाहते हैं। - स्थानांग सूत्र में भी कहा है:- ... त्रिभ्यःस्थानेभ्यः देवा अपि स्पृहयेयुः। 5 साल मानुष्यकंभवं 1 आर्य क्षेत्रे जन्म 2 सुकुल प्रत्ययिकी जातिम् // की . अर्थात्-देवता तीन इच्छा करते हैं-(१) मनुष्यभव की, आर्यक्षेत्र में जन्म की और अच्छी जाति की। . . * - तदनन्तर इन्द्र महाराज ने वरदान दिया कि हे. वत्स !:: नष्कंटक इस पृथ्वी के राज्य को प्राप्त करो। और सब -गों के अलंकार भी दिये / हे वत्से ! तू शुद्ध शील वाली, अतः अखंड सौभाग्य को सदा प्राप्त हो / ऐसे आशीर्वाद से.. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust