________________ * चतुर्थ परिच्छेद * [ 105 नहीं लिये ? यह लोभ इन्द्र से लेकर कीट पर्यन्त प्रसार पाया हुअा है। मन में प्रवेश करते हुए इस लोभ को तूने कैसे रोक लिया। उस समय अपने निर्दोषपने से निःशंक होकर धनदत्त ने राजा से कहा-हे राजन् ! सब पाप लोभ के कारण ही होते हैं। यदि लाभ है तो अन्य अवगुण से क्या ? इत्यादि शास्त्र के वचनों को सदा स्मरण करते हुए मुझको लोभ रूपी पिशाच कभी नहीं सताता। दूसरी बात यह है कि विशुद्ध न्याय के मार्ग में चलने वाले उत्तम पुरुष को चोरी और चोरी से प्राप्त धन को सर्वथा छोड़ देना चाहिए। हे स्वामिन् ! मैंने सन्तोष का आदर करके उन रत्नों को नहीं लिये / उसकी निर्लोभता से राजा ने प्रसन्न होकर उसका बड़ा सत्कार किया। सर्वथा सात व्यसनों से रहित होने से, शुद्ध व्यवहार में निष्ठ होने से, सधार्मिकपने से, सत्य और हितकारक वचनों के कहने से, सर्वत्र उदारपने से वर्द्धमान सम्पत्ति वाला धनदत्त सब नगरी का प्रिय हो गया। . एक दिन राजा की सभा में एक धूर्त आया और हाथ में कोटि मूल्य के रत्नों को रखकर दिखाने लगा और अहंभाव के साथ कहने लगा कि समुद्र में कितना जल है और कितना कीचड़ ? यह सन्देह मेरे मन में चिरकाल से है। जो P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust