________________ * चतुर्थ पच्छेिद * [65 दे दिये। इस तरह सदा रत्नों को लेकर वह फल देने लगा। यों करते करते उसके पास करोड़ों रत्न हो गये। मिले हुए उन करोड़ों मणि रत्नों से जहाज को भरकर प्रसन्न मन से सिद्धदत्त अपने नगर में सुख से आ पहुँचा। उस जहाज में करोड़ों रत्नों को देखकर रत्नवीर राजा ने लोभ से जब्त करने की आज्ञा दे दी। यह देखकर सिद्धदत्त ने मन में सोचा कि मैंने प्राणों को तृणवत् मानकर समुद्र यात्रा करके बड़े कष्ट से धन कमाया है, वह सब वृथा हो गया। यदि माता विष दे दे, पिता पुत्र को अगर बेच दे तथा राजा धन हरण कर ले तो वहां क्या प्रतीकार हो सकता है ? * इस दुखी सिद्धदत्त के निराश होने पर तेहरवें 13 दिन स्वयं राजा ने अपनी आज्ञा वापिस लेली, तष सिद्धदत्त प्रसन्न हा। जहाज से उस मणिरत्नों को उतार कर और उन्हें बेच कर 66 छासठ कोटि सुवर्ण का मालिक उस नगर में वह एक ही हुआ। यह अज्ञान किसी महाजन में मिलता है कि अपनी लक्ष्मी से गर्वित हुआ वह ज्ञान को घास के तुल्य भी नहीं मानता और किसी धर्म कार्य में कानी कौड़ी भी खर्च नहीं करता तथा अपने कुटुम्बियों का उपकार भी नहीं करता। बड़ों को, अरिहन्त भगवान् को तथा गुरु को वन्दना भी नहीं करता / एकमात्र धन में ही चित्त लगायें P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust