Book Title: Ratnapala Nrup Charitra
Author(s): Surendra Muni
Publisher: Pukhraj Dhanraj Sheth

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Page 110
________________ * चतुर्थ परिच्छेद . [63 महा. लोभ से बहुत सी स्वर्ण की ईटों को संग्रह करके बत्तीस स्वर्णकोटि का मालिक वह कृपण अपने जन्म से जैसे भष्ट हुया, उसी प्रकार हे मित्र ! प्राणान्त कष्टकरी इस जहाजी व्यापार में अत्यन्त लोभ से प्रवृत्त तू अपनी सन्तान और आयु से भट मत हो। तेरे घर में सात पीली तक भोगने योग्य धन है / हा ! बड़ा कष्ट है कि तू इतने धन का भी आदर नहीं करता / हे महाशय ! अपने घर में रहा हुआ तू धन से धन को बढ़ाओ और दान और भोग को करता करता हुया अपने जन्म को सफल कर। इस प्रकार मित्र ने उसे विविध युक्तियों से समझाया, परन्तु ज्ञान के न होने से अथवा समझ की कमी के कारण उसने उन हितकारक वचनों को नहीं माना। तदनन्तर अतितृष्णा से चंचल वह मंगल का कौतुक करके जहाज में बैठकर किसी स्थान को चला गया। वहां बहुत काल तक व्यवहार करने से उसे अतुल धन की प्राप्ति हुई। तब अपने परिवार के साथ अपने नगर की ओर लौटा। इच्छानुसार धन मिलने से हृष्ट वह आरहा था कि मार्ग में अचानक दुर्दैव से प्रेरित आंधी से समुद्र क्षुभित हुआ। उस समय समुद्र में भयंकर बड़ी 2 लहरें उठने लगीं। जैसे शमशान में वैताल उठते हों, उन तरंगों डांवाडोल हुआ P.P: Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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