________________ * द्वितीय परिच्छेद * [43 नैमित्तिक की कही हुई यह वाणी आज सत्य हुई। इसी बीच में महा तेज की राशि के समान किसी देवता ने प्रकट होकर रत्नपाल राजा से प्रेमपूर्वक कहा-हे राजन् ! तूने उस समय मेरा उपकार किया था, उसे याद करता हुआ मैं तुझे जयश्री देने के लिए जयामात्य के युद्ध में आया था, आज हाथी के रूप को धारण कर कन्यायों की प्राप्ति के लिए मातंग ने तुझे हरण किया था। उस दुरात्मा को मैंने खेल ही में मार दिया। अब धर्मात्माओं को मिलने योग्य दिव्य रस से पूर्ण इस तूम्बे को हे भाई ! ग्रहण करने की कृपा 1. करो। चौबीस वर्ष तक कन्द मूलादि को खाते हुए प्रति दिन नीचे मुख करके दो प्रहर तक मन्त्र जप करते हुए, मातंगविद्या को जानते हुर, दुष्कर क्रिया को करते हुए और होम करते हुए मैंने प्रसन्न हुए नागराज से इस दिव्य रस को पाया है। इसकी एक बून्द के स्पर्श होने पर कोटिपल लोह स्वर्ण बन जाता है। उसी प्रकार दुःसाध्य. व्याधियें शान्त होती हैं। इसके स्पर्श से भूत प्रेतादि के उपद्रव विलीन हो जाते हैं और हर रोज काम में आने पर भी क्षीण नहीं होता / जगत को जीतने की महिमा वाले इस रस से तिलक करने पर मनुष्य युद्ध में देवता और असुरों से भी अजय्य होता है। अन्य भी दुःसाध्य कार्य इससे सिद्ध होते हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust