________________ 62 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * / जो अर्थात् एक के विजित होने पर पाँच विजित होते हैं, पाँच के विजित होने पर दस विजित होते हैं। इस प्रकार दस प्रकार के शत्रुओं को जीतकर समस्त शत्रुओं को में जीतता हूं। . / एक मन के न जीतने पर कषाय और इन्द्रियाँ नहीं विजित होते / उनको यथाज्ञात जीतकर मैं मुनि विचरण करता हूं। जो शूरवीर युद्ध-स्थल में सैंकड़ों, हजारों, लाखों शत्रुओं को जीत लेते हैं, वे भी दुराशयी क्रूर अपने मन को जीतने में समर्थ नहीं होते। जो बड़ी भारी सिला को सहज ही उठाकर फेंक देते हैं, वे वीर भी मन को जीतने में समर्थ नहीं होते। जो लोग कुलीन, वक्ता, समस्त विद्या को जानने वाले होते हुए भी अपने मन को जीतकर स्वहित में जोड़ने में असमर्थ रहते हैं। जो अपनी वाणी से 1. मनुष्यों को प्रतिदिन बोध करता है। स्वयं विषयों को भोगता है, वह नन्दिषेण मुनि की भांति है। कहा है:.: दश दश दिवसे 2 धम्मे बोहेइ अहव अहिअयरे। * इय नन्दिषेण सत्ती तहवि असे संजम विपत्ती // 1 // तथाःपइ दिवस दस जण वोह गोऽवि सिरि वीर नाह सीसो वि / सेणि अ सुओविसत्तो वेसाए नन्दिषेण मुणी // 1 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. _Jun.Gun Aaradhak Trust