Book Title: Ratnapala Nrup Charitra
Author(s): Surendra Muni
Publisher: Pukhraj Dhanraj Sheth

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Page 78
________________ * तृतीय पच्छेिद * . [61 एक दिन उस नगर में महासेन नामक महामुनि मूर्तिमान धर्म की तरह लोगों पर कृपा करके पुरवासियों के कल्याण करने की भावना से पधारे / जिनके वचन रूपी अमृत से मिथ्यात्वरूपी विष का वेग नष्ट हो जाता है। ऐसे पूज्यपाद उन महामुनि को वन्दन करने के लिए अनेक श्रद्धालु भव्य मनुष्य आये। महाराज नप रत्नपाल भी अपने परिवार स्त्री पुत्रादि के साथ जंगम महा तीर्थ उन मुनिराज की उपासना करने को आये। उस समय अपार संसार रूपी महावन से मनुष्यों का उद्धार करने वाले उन मुनिश्रेष्ठ ने पूर्णतया समझा 2 कर धर्म-मार्ग का उपदेश किया। जो भव्य मनुष्य नित्य आने वाले जन्म, जरा, मृत्यु और भय आदि दुःखों से डरा हुआ शीघ्र मोक्ष गमन की इच्छा करता हो, वह मनुष्य आदर पूर्वक संसार सागर को पार उतारने में नौका के सदृश आर्हत धर्म की सदा आराधना करें। यह आराधना किया हुआ आहत धर्म सब आन्तर भीतरी' शत्रुओं को जीतने में सुसिद्ध और सुखसाध्य है। उन शत्रुओं में प्रधान मनःशत्रु है। उस एक के जीतने पर समस्त . वर्ग जीता हा ही है। शास्त्र में कहा है - एकस्मिन् जिते जिता पंच पंचसु जितेषु जिता दश / . दश धातु जित्वा सर्व शत्रून् जयाम्य हम् // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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