________________ * तृतीय परिच्छेद * . [ 66 पानी में रही हुई मछली की तरह विषयान्तर को स्मरण नहीं करता था। * एक दिन लम्बे अर्से के बाद मुग्धभट्ट अपने घर आया और अपनी स्त्री से पूछा-हे सुभ्र ! तू बहुत समय तक मेरे वियोग से कैसे रही ? वह बोली-हे नाथ ! सद्धर्म में निरन्तर संलग्न रहने से मैंने आपके वियोग से उत्पन्न हुए दुःख को कुछ नहीं जाना। यह सुनकर ब्राह्मण कहने लग कि हे प्रिये ! वह कौनसा धर्म है ? तब उस स्त्री ने कहा ज्ञान, श्रद्धा, चारित्र रूप वह आहत धर्म है। यथावस्थित तत्वों का संक्षेप से अथवा विस्तार से जो ज्ञान है उसको विद्वान् लोग सम्यक् ज्ञान कहते हैं। जिन भगवान् से कहे हुए तत्वों में जो रुचि है, उसे सम्यश्रद्धा कहते हैं। वह किसी को स्वभाव से ही होती है और किसी को गुरूपदेश से। समस्त सावद्य योगों का त्याग चारित्र कहलाता है / वह चारित्र क्रम से साधु को सर्व रूप से और श्रावक को एक देश से विहित है। इस प्रकार उस स्त्री ने सर्वज्ञ भगवान् से उपदिष्ट धर्म का विस्तार पूर्वक वर्णन किया। सरल प्रकृति होने के कारण उस ब्राह्मण के मन में अच्छा लगा। किसी कवि ने कहा है: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust