________________ 74 ] ___ * रत्नपाल नृप चरित्र * स्मरण में तत्पर जानकर, विमला के मुख से धर्म ज्ञान सुनकर, मन को वश में करके अर्हत्कृत्यों में मन को जोड़कर सुलक्षणा भी परम पद को पहुंच गई। .. - ऊपर कहे हुए दृष्टान्त को सुनकर संसार के चक्कर से यानि जन्म-मरण के चक्कर से उद्विघ्न हुए दुःख और कर्मों के क्षय को चाहने वाले भव्य मनुष्यों को सब प्रकार से मन को जीतने का प्रयत्न करना चाहिए। महात्मा लोग इसी को धर्म का तत्व कहते हैं। इससे बहुत से प्रणी अरुण के उदय होने पर कमलों की भांति प्रबोध को प्राप्त हुए / . तदनन्तर नृपश्रेष्ठ रत्नपाल ने दोनों हाथ जोड़कर अपने प्राच्य कर्मों के विपाक को ज्ञानी से इस प्रकार पूछा-हे स्वामिन् ! महा तेजस्वी मेरे विशाल राज्य को अधम जयामात्य ने किस पूर्वभव के कर्म से छीन लिया और किस कर्म से उसने शृंगारसुन्दरी की विडम्बना की और उस सती ने सारा अपमान किस कर्म से सहन किया ?, कौनसे प्राच्य पुण्य के प्रभाव से मैंने फिर स्पुरायमान राज्यलक्ष्मी वाले राज्य को प्राप्त किया ?, कनकसुन्दरी के कुष्टरोग किस प्राचीन कर्म के उदय से हुआ और गुणमंजरी की अन्धता किस प्राचीन पाप कर्म से हुई ? हे स्वामिन् ! देवताओं को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust