________________ 60 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * बड़े 2 नगर थे। सहस्र समुद्रतट" "नावों के ठहरने के स्थान" थे। बारह बड़े 2 मण्डलेश्वर राजा थे। दस सहस्र द्वीप और उतने ही मुकुटधारी द्वीप महीपति उसके अधीन थे। चालीस करोड़ पैदल सेना, तीस लाख हाथी, एक लाख रथ, चालीस लाख घोड़े निश्चित थे। जलदुर्ग पाँच सहस्र और स्थल दुर्ग दस हजार थे। हेमांगद आदि सहस्रों खेचर सदा उसकी सेवा करते थे। उस राजा के घर में दीन दुखियों के उद्धार के लिए और आश्रितों का पालन करने के लिए हमेशा एक करोड़ स्वर्ण व्यय होता था। पूर्वभव के पुण्य से जो महारस उसने तूम्बे में पाया था, उससे उतना ही स्वर्ण उसके हो जाता था। उस महारस के प्रभाव से उस राजा के राज्य में अधि "मनः पीड़ा" व्याधि सात प्रकार की ईतियां 'उपद्रव' महामारी आदि कभी नहीं फैलते थे। अनन्तर राजा रत्नपाल के क्रमसे शत्रुओं को जीतने वाले सौ पुत्र हुए, जिनके नाम मेघरथ आदि थे / उपरोक्त अत्यन्त ऐश्वर्यशाली राज्य को भोगते हुए सुख समुद्र में खेलते हुए नप रत्नपाल के 10 लाख वर्ष, दिन की तरह सुख से बीत गये। . .. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust