________________ द्वितीय परिच्छेद * . [31 पहिले किये गए हैं वे ही भोगे जाते हैं, हे जीव ! जो तूने किया है उसे भोग / यह विचार कर अपने दिल में धैर्य धारण किया कि इस समय भाग्यहीनता से प्राप्त हुई इस दुर्दशा को भोग लूं / पीछे कर्म के अनुकूल होने पर सब मेरे लिए अच्छा ही होगा, क्योंकि किसी विद्वान ने कहा है छिन्नोऽपि रोहति तरुः क्षीणोऽयुपचीयते पुनश्चन्द्रः / * इति विमृशन्तः सन्तः परितप्यन्ते न विधुरेऽपि / / 1 // " अर्थात्-कटा हुआ वृक्ष फिर उगता है, क्षीण हुआ चन्द्रमा फिर बढता है। यह विचारते हुए सज्जन लोग दुःख में नहीं घबराते / इस प्रेरणा से राजा रत्नपाल पहिले जैसे सुख में अपने आपको भाग्यवान् समझता था उसी तरह इस प्राप्त हुए दुख में भी उस महा सत्व शाली की मुख शोभा समान हो गई। / तदनन्तर वह पलंग से उतर कर चारों तरफ वन को देखता हुआ एक पर्वत के सामने आया और धीरे धीरे उसके ऊपर चढने लगा। विस्मित की भांति वन की शोभा को देखते हुए उसने एक सुन्दर मनुष्य को वृक्ष के मूल में बन्धा हुआ देखा / उसे बन्धन से छुड़ाकर सुके हुए उसको वह पूछने लगा-तू कौन है ?, किस कारण, किसने तुझे बांधा है ? यह सब साफ 2 मुझे कहो। वह बोला-वैताड्य P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust