________________ * रत्नगल नृप चरित्र एक समय दान, शील, तप और भाव जो मुक्ति के मार्ग हैं वे अपने 2 महात्म्य के घमण्ड से "मैं बड़ा ह" इस प्रकार आपस में विवाद करने लगे-दान बोला-मैं ही मुक्ति का मुख्य कारण हूं, अन्य गील आदि सब सहकारी कारण अर्थात् सहायता करने वाले हैं, ऐसा समझो। मैंने इतनी प्रौढ़ी आरोपित की है कि एक जन्म से ही शालिभद्र माक्ष को प्राप्त हुए, तीनों लोक इस वृतांत को जानते हैं। धनसार्थेश के भव में जो घी का दान साधुयों को दिया उस दान के पुण्य से त्रिलोक के पितामह ऐसे युगाधीश हुए, इक्षग्म को देने वाले अपने पौत्र के हाथ के नीचे अपना हाथ प्रभु ने किया इस कारण से मेरा महात्म्य साफ प्रकट है। जो निस्पृही लोग किसी भी काम में किसी की भी सहायता नहीं चाहते मुक्ति-मार्ग में प्रवृत हुए वे भी दाता की अपेक्षा रखते हैं। बहुत कथन से क्या ? नव निद्धियें और आठ सिद्धियें तथा पुरुषों को उत्तम भोग एवं आरोग्यादि जों प्राप्त होते हैं वे सब मेरे ही प्रभाव से मिलते हैं। , शील बोला-इन मोक्ष के अंगों में युक्तियों द्वारा मेरी ही मुख्यता सिद्ध होती है, अन्य की मुख्यता किसी प्रकार सिद्ध नहीं होती / इस संसार में सेठ सुदर्शन को ऐसे ऐसे अद्भत प्रतिहार्य प्रकट हुए हैं और जो मोक्ष को प्राप्त P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust