________________ के प्रथम परिच्छेद * / भी नत मस्तक होकर पानी भरते हैं। दान से प्रतिकूल प्राणी भी वैर भुलाकर वशीभूत हो जाते हैं। प्राच्य दुष्कर्म से उत्पन्न हुए पापों के समूह दुर होते हुए भी दान से क्षीण हो जाते हैं। इसलिए गुण की अपेक्षा न करके सब स्थान में सदा दान देना चाहिए, इस प्रकार सत्पात्र भी कहीं मिल जाय / शास्त्रान्तर में कहा भी है: - सर्वत्र ददतो दातुः पात्रयोगोऽपि सम्भवेत् / .... वपन् क्षाराणवेऽप्यन्दो मुक्तात्मा क्वापि जायते // 11 // एक बार भी सत्पात्र में दिया हुआ शुद्ध श्रद्धा से युक्त थोड़ा भी दान मनुष्यों के अनन्त लाभ के लिए होता है। कहा भी है—'ब्याज में धन दुगुना, व्यापार में चौगुना, कृषि में सौगुना और पात्र में अनन्तगुना होता है।' इतिहास में भी कहा है-'अश्रद्धा से दिया हुआ बहुत दान भी निष्फल होता है।' विद्वान् लोग ऐसा कहते हैं कि श्रद्धा से दिया जल भी अनन्तगुन फलदायक होता है। पात्र और अपात्र का विवेक रखने वाले विवेकी पुरुष को गुण अच्छी तरह पात्र का निश्चय करके श्रद्धा दान करना चाहिए। विवेकियों द्वारा श्रद्धा-दान में कुपात्रों को दान * दिये जाने पर कुपात्रों के दुश्चरित्रों का बढ़ाना होगा। दया-दान तो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust