________________ 8] रत्नपाल नृप चरित्र * तुमको कहता हूँ, विस्तारपूर्वक समझाता हूँ, जिसकी लीला अति निर्मल और चन्द्र की किरणों के समान देदीप्यमान है ऐसे हे शील ! सुनो, हे निनिदान तप !, हे पाप का नाश करने वाली तीव्र भावने ! तुम्हारी आराधना से निश्चय ही एक प्राणी की मुक्ति होती है, पर दान से देने वाले की और लेने वाले दोनों की मुक्ति स्पष्ट देखी जाती है। = शास्त्रान्तर में भी कहा है: . हे शील ! चन्द्रकर लील ! भवाम्बु राशि, स्तिारणो डुप ! तपः / शृणु भावने ! त्वम् / एकस्य सिद्धिरभवत भवतां प्रसादात् दानान्तु दातु रप रस्य मुक्ति मार्गः // 1 // राग और द्वेष से रहित है मन जिनका ऐसे सर्वज्ञ भगवान के मुखाविन्द से दान की युक्तिपूर्वक श्रेष्ठता सुनकर लजित हुए मात्सर्य को छोड़कर शीलादि तीनों धर्म दान को अपने ऊपर रखकर बहुत आदर करने लगे। 2. इस लोक और परलोक में दान ही संयोग, आरोग्य, सद्भोग, भाग्य, सौभाग्य और सम्पत्ति का कारण है, यह सर्वज्ञ भगवान ने फरमाया है। दान से सब जगह बे रोक टोक कीर्ति फैलती है, दान से मनुष्यों के मुख पर भावी उदय को सूचित करने वाली दीप्ति होती है, पुराने. प्रेम से वशीभूत हुए स्वजन तो दूर रहे, दान से श्रावर्जितः हुए शत्रु . . P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust