________________ * रत्नपाल नृप चरित्र दीर्घकाल तक आचरण किया, अगर चित्त में भाव नहीं है तो तुष के बाने के समान सब निष्फन है। मोह से निविड़ पास से बांधकर भव-चक्कर में फेंके हुए भरत चक्रवर्ती को मैंने ही क्षणमात्र में उबारा / ------------- मुख्य मोक्ष के अंग मुझे पाकर ही भगवान को माता मरुदेवी जिसने पहिले धर्म प्राप्त नहीं किया था, तो भी मोक्ष को प्राप्त हुई। कपटी आषाढ़भूति जो ब्रह्मा-मार्ग से भ्रष्ट हो गया था, मैंने अन्य गतियों को रोक कर परमधाम को पहुँचाया। बांस पर बन्दर की तरह कर्म से नाचता हुआ राग से लुब्धचित्त इलातीपुत्र ने मेरी शुद्धि से उज्जवल ज्ञान प्राप्त किया। मनुष्य मात्र मेरी शुद्धि से मोक्ष और मेरी अशुद्धि से बन्ध को प्राप्त होते हैं, इस विषय में प्रसन्न चन्द्रर्षि का स्पष्ट दृष्टांत है। विरत और अविरत दो भाइयों के ऐतिहासिक दृष्टांत से मेरी सब स्थान में प्रमाणिकता सिद्ध होती है, क्रिया की प्रमाणिकता कहीं नहीं है। इस प्रकार दान, शील, तप और भाव ये धर्मभेद अपने अपने महात्म्य से गर्वित हुए आपस में विवाद करते हुए तीर्थङ्कर भगवान के पास पहुंचे। उस समय सब स्थान में समान दृष्टि रखने वाले भगवान् वीतराग प्रभु उनके विवाद P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust