Book Title: Ratnapala Nrup Charitra
Author(s): Surendra Muni
Publisher: Pukhraj Dhanraj Sheth

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Page 40
________________ __ * द्वितीय परिछेद 20-25514 25 नृप रत्नपाल के समस्त अन्तःपुर के शील का विप्लव कर दिया। वह वर्म-चाण्डाल हमेशा खुशामद पूर्वक शृंगारसुन्दरी से : प्रार्थना किया करता था, परन्तु शुद्ध वंश में उत्पन्न दृढ़ सत्व "मनोबल' वाली सती ने उसके मधुर वचनों को नहीं माना। तब उस रागान्ध ने मर्यादा छोड़कर प्रतिदिन पांच . सौ चाबुक से सती को पीड़ा देना शुरू किया। शिरीष के पुष्प के सदृश कोमल अंग वाली उस महासती को जलते हुए संदंश (लोह की संडाशी) से वह दुष्ट बार. बार तोडता था। इस प्रकार हठ में चढ़े हुए उस जयामात्य ने अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अनेक प्रकार की कदर्थना एक मास तक . पहुंचाई, परन्तु प्राणों से भी अधिक शील को मानती हुई मन से भी वह थोड़ो भी शुभ मार्ग से विचलित नहीं हुई। दुराचारी मन्त्री के एक प्रिय पर विवेकवान् और विचारशील मित्र ने उसके उन कर्मों के बुरे नतीजों को विचारते हुए : उसके हित के लिए उपदेश देना आरंभ किया हे महीपते ! : महा सतीयें अपने शुद्ध शाल के प्रभाव से समुद्र को भी थल ' . बना देती हैं और थल को समुद्रः बना देती हैं। अग्नि को .: जल, जल को अग्नि, पर्वत को वल्मीक, वल्मीक को पर्वत . बना देती हैं। राक्षस, . यक्ष, सर्प, व्याघ्र और दुष्टों का दमन करती हैं तथा आते हुए स्वचक्र और परचक्र का स्तंभन - कर देती हैं। यदि ये महासतिये कुपित हो जाय तो शाप भाचार्य श्री कैलास सागर परि ज्ञान मन्दिा श्री महावीर जैम आराधना केन्द्र P.P. Ac. GO पाया, जि. गांधीनगर, पीन-३८२०७ 6ak Trust

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