________________ 28 ] * रत्नपाल नृप चरित्र * हुआ उसके पैरों में पड़कर नृप और पुरवासी लोगों के सामने क्षमा मांगी। तदनन्तर सती के कहने पर सूर्य अपने समय पर अस्त हुया, उसके अनुनय विनय से वह नभश्चर शाप से / मुक्त हुआ और अपने शत्रुओं को क्रमसे जीत कर फिर राज्य लक्ष्मी को प्राप्त हुआ / इस प्रकार हे राजन् ! कुशल चाहने - वाले चतुर पुरुष महाप्रभावशाली सतियों की आराधना करते हैं, कभी विराधना नहीं करते। जयं भूपति ने अपने मित्र की पूर्वोक्त शिक्षा को सुनकर शृंगारसुन्दरी की ओर से अपने चित्त को शान्त किया और उसको दुःख देना बन्द कर दिया। अब ऐसी विडम्बना को पाकर और उस विडम्बना से मुक्त हुई शृंगारसुन्दरी ने हमेशा आचाम्लादि' तप करना शुरू किया / शरीर की भी परवाह न करके वह शृंगारसुन्दरी बीच 2 में पक्ष मास उपवास से भी तीव्र तपस्या करती थी। स्नान, अक्षराग संस्कार अच्छे वस्त्र अलंकार को सदा वर्जन करती हुई जिन-पूजा में : सदा तत्पर रहती थी। पृथ्वी पर शयन करती थी। पति के - वियोग को और राज्यलक्ष्मी के नाश को "जो अत्यन्त दुःसह. है" याद करती हुई वह सती मरना चाहती थी। परन्तु किसी. ज्योतिर्विद ने कहा था कि तेरा पति तुझे मिलेगा और 1. आवम्बिल P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust