________________ (6) जगती के जन दुख पंक मग्न, जो कर्तव्यों से है विलग्न / पापों की भीषण रूप रास, देती है उनको प्रवल त्रास // ऐसे जब जन तुमरे अधीन, होते तब बनते दुख विहीन / तव परम शान्तिमय रूप नाम, हे हीर मुने ! तुमको प्रणाम // तुम दृढ़ वृत्ति तुम तपोनिष्ठ, फिर मधुर भाव तुम में विशिष्ट / तव स्मितियुत आनन का प्रकाश, करता मन पंकज का विकाश // सत् कृति के नाशक वे विकार, तुम पर नहिं कर सकते प्रहार / तुम आत्म भावना से ललाम, हे हीर मुने ! तुमको प्रणाम // रहते अधीन तुमरे जो जन, उनके सब पाप ताप मोचन / करते भव बाधा की प्रशान्ति, हरते तुम सब अज्ञान भ्रान्ति॥ विध्वंसित तुमसे दुर्विचार, विस्तारित है बहु सद् विचार / अति पावन है तव गुण ग्राम, हे हीर मुने ! तुमको प्रणाम // दुर्ललित काम क्रोधादि मार, जगतीतल में करते विहार / बहु पूजित बहु संमानित तुम, बहु वंदित बहु आनन्दित तुम॥ हे महा मुने ! मैं हूँ अजान, किस भांति करू तव कीर्ति गान। वस जाप करूं तव ललित नाम, हे हीर मुने ! तुमको प्रणाम // ___ रचयिता-सुरेन्द्र P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust