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पुप्पा २०
रत्नमाला
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अनिन्द्या सप्तभङ्गीसमालिङ्गिता वागास्तमीमांसा स्तुतिर्यस्य तम् । अनेन स्याद्वादविद्या धिपत्यं भव्यकलङ्क भावाविर्भावना वैदग्ध्यं तीर्थप्रभावना प्रागल्भ्यमिति विशेषणत्रयेण तीर्थमित्येतदादौ कृत्वेत्येतदन्ते वृत्तांशे वाक्यत्रयोपदर्शितं सुरे विशेषणत्रयं संबोधितम् । तयाद्येन विशेषणेन सर्वपदार्थ तत्व विषय स्याद्वादपुण्योदधेरुध्द्धृत्यैत्तद्वाक्यमाश्लिष्टं भगवानयमाचार्य स्याद्वाद विद्याविभवाधिपतिस्तद्विद्या महोदधेरुद्धृत्य प्रकरण मारचयि तृत्वात् । यथा सकलश्रुत विद्यामहोदधेरूध्दृत्योत्तराध्ययनप्रकरणभारचयन् भद्रबाहुस्तद्विद्याविभवाधिपतिरित्युपपादनात् । द्वितीयेन भव्यानामव भावकृतये काले कलावित्येतदिष्टं स्पृष्टम् । तृतीयेन तीर्थं प्रभावीत्येतदुपक्षिप्तमिति । विशेष्यं तु प्रसिध्दमेव ।
अर्थ : श्री समन्तभद्र स्वामी को नमस्कार कर के। कैसे हैं समन्तभद्रस्वामी? "श्रीवर्धमानम् " निर्दोष स्याद्वाद विद्या के वैभव की आधिपत्य लक्षण लक्ष्मी से जो वृध्दि को प्राप्त हैं। पुनः कैसे हैं ? "उद्भूत बोधमहिमानम् " भव्य जीवों को इस कलिकाल में भी कलंकरहित निर्दोष विद्या को प्रकट करने के लिए, स्याद्वाद तत्त्व को प्रकट करने
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जिनका ज्ञान समर्थ है। पुनः कैसे हैं? "अनिंद्यवाचम् " सप्तभंगी से युक्त आप्तमीमांसा नाम की स्तुति जिन्होंने रची हैं, ऐसे श्री समन्तभद्र स्वामी को नमस्कार कर के यह आप्त मीमांसा की टीका मेरे द्वारा अलंकृत की जाती है।
ग्रंथकार ने भी स्वामी समन्तभद्र की स्तुति की है। कैसे हैं वे समन्तभद्र ? १. अरघ अघ यानि पाप, उससे वे रहित हैं।
२. जिनराज जिन यानि सम्यग्दृष्टि, उनके वे राजा हैं।
३. शासनाम्बुधि चन्द्रमा - शासन यानि जैनधर्म, अम्बुधि यानि सागर। जिस तरह चन्द्रमा की कलायें समुद्र को विकसित करती है, उसी प्रकार जिनशासन रूपी सागर को समन्तभद्र रूपी चन्द्रमा विकसित कर रहा था।
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आज भी युक्त्यनुशासन, आप्तमीमांसा, स्तुति विद्या, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, स्वयंभू स्तोत्र जैसी समन्तभद्र की महाकृतियों को पढ़कर सम्यग्दृष्टि भव्य निज आत्म कल्याण कर रहे हैं ।
वैसे निर्देश मिलता है कि, जीवसिद्धि, तत्त्वानुशासन, प्राकृत व्याकरण, प्रमाण पदार्थ, कर्म प्राभृत टीका व ग्रंथहस्ति महाभाष्य भी आपकी ही पावन कृतियाँ हैं - परंतु वे आज अनुपलब्ध हैं।
सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.